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फिर नौ ग्रहों तथा सोलह माताओं की पूजा की जाती है. चढाई गई सभी सामग्री ब्राह्माण को दे दी जाती है.
मंगला गौरी की प्रतिमा को जल, दूध, दही से स्नान करा, वस्त्र आदि पहनाकर रोली, चन्दन, सिन्दुर, मेंहन्दी व काजल लगाते है. श्रंगार की सोलह वस्तुओं से माता को सजाया जाता हैं.
सोलह प्रकार के फूल- पत्ते माला चढाते है, फिर मेवे, सुपारी, लौग, मेंहदी, शीशा, कंघी व चूडियां चढाते है.
अंत में मंगला गौरी व्रत की कथा सुनी जाती हैं.
कथा सुनने के बाद विवाहित महिला अपनी सास तथा ननद को सोलह लड्डु देती हैं. इसके बाद वे यही प्रसाद ब्राह्मण को भी देती हैं. अंतिम व्रत के दूसरे दिन बुधवार को देवी मंगला गौरी की प्रतिमा को नदी या पोखर में विर्सिजित कर दिया जाता हैं.
व्रत कथाः
कुण्डिन नगर में धर्मपाल नामक एक धनी सेठ रहता था. उसकी पत्नी सती, साध्वी एवं पतिव्रता थी. परंतु उनके कोई पुत्र नहीं था सब प्रकार के सुखों से समृद्ध होते हुए भी वे दम्पति बड़े दुःखी रहा करते थे.
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