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लिखित तरह-तरह के तर्कों से राजा को दंड देने के लिए विवश करने लगे. उस समय के विधान के अनुसार चोरी का दंड था, चोर के दोनों हाथ काट देना. राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए.

कटे हाथ लेकर लिखित संतुष्ट मन से बड़े भाई के पास लौटे और कहा- मैं दंड ले आया. शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है. चलो स्नान संध्या कर आएं.

लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया. अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अचानक पहले की तरह पूरे हो गए.

उन्होंने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूं दौड़ाया? शंख बोले- अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है.

व्यासजी बोले- युधिष्ठिर! देवता, पितर, अतिथि एवं अन्य सभी प्राणियों का पालन गृहस्थ आश्रम से होता है. जो गृहस्थ धर्म का आचरण करते हैं वे सर्वश्रेष्ठ है. आपने सर्वश्रेष्ठ गृहस्थों के कल्याण के लिए युद्ध का निर्णय किया. इसलिए युद्ध की पीड़ा त्यागकर जनकल्याण में जुटें.

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प्रभु शरणम्

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