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निषादराज के पिता की चक्रवर्ती महाराज दशरथ से मित्रता थी. वह दशरथ के दर्शन करने समय-समय पर अयोध्या आया करते थे.
दशरथजी के घर में प्रभु का अवतार जब हुआ वह तब तक निषाद वृद्धावस्था में पहुंच गए थे लेकिन संतान की बधाई लेकर स्वयं अयोध्या आए. दशरथ के चारों पुत्र साधारण पुरूष तो थे नहीं, सभी अवतारी थे.
उनके दर्शनों से निषादराज को जो आनंद की अनुभूति हुई उसकी कोई सीमा ही न थी. उनका तो हृदय वहां से जाने को ही नहीं करता था. भला भगवान के बालरूप के आनंद से कौन वंचित रहना चाहेगा!
जब बृद्ध निषाद अयोध्या से लौटे, तो प्रभु की सुंदरता, उनकी बाल लीलाओं का वर्णन करते नहीं अघाते. यह सब सुनकर छोटे निषाद के मन में बड़ी इच्छा हुई कि क्यों न मैं भी दर्शन कर लूं.
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