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पिछली कथा से आगे…दूसरा भाग
राजा बलि के सौ पुत्रों में से बाणासुर सबसे प्रतापी था. एक बार उसने कुमार कार्तिकेय को देखा. वह बालक थे. कार्तिकेय को देखकर उसके मन में दैवयोग से शिव-पार्वती का पुत्र बनने की इच्छा जागी.

शिव-पार्वती के संतान के रूप में जन्म पाने के लिए वह घोर तप करने लगा. वह प्रतिदिन महाकाल, त्रिपुरारी, अर्धनारीश्वर, ईशान, त्रिलोचन और नीलकंठ आदि नौ प्रकार के एक करोड़ पार्थिव शिवलिंग प्रतिदिन बनाता और पूजन के बाद उन्हें नर्मदा में प्रवाहित कर देता.

तप से प्रसन्न महादेव और पार्वती ने दर्शन दिए. माता ने उसे इसी जन्म में पुत्र रूप में स्वीकार लिया. भगवान भोलेऩाथ ने उससे वरदान मांगने को कहा. तो बाणासुर ने उनसे मांगा कि उसकी हजार भुजाएं हो जाएं जिससे कोई उसे पराजित न कर सके.

महादेव उससे बहुत प्रसन्न थे. उन्होंने उससे कहा कि तुम एक और वरदान मांग लो. उसने मांगा कि शिवजी अपने परिवार समेत उसके राज्य में वास करें और उसकी पहरेदारी करें. महादेव वचनबद्ध थे.

स्वयं शिव द्वारा रक्षित बाणासुर परम शक्तिशाली होकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर राज करने लगा. उससे देवता तक भयभीत रहने लगे. बाणासुर अजेय हो चुका था. इसलिए कोई उससे युद्ध करने का साहस नहीं करता था.

अभिमान से बुद्धि नष्ट हो ही जाती है. वही बाणासुर के साथ हुआ. लंबे समय तक युद्ध से दूर रहे बाणासुर को एक दिन युद्ध करने की बड़ी तीव्र इच्छा हुई. उसने दिक्पालों को चुनौती दी किंतु सबने पहले ही पराजय मान ली.

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