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दोहाः
सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥ 2॥
भावार्थः जो मनुष्य इस संत समाजरूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं.
दोहाः
मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई।
सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
भावार्थः इस तीर्थराज में स्नान का फल ऐसा है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस. यह सुनकर आश्चर्य न करें क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है.
बालमीक नारद घटजोनी।
निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥
भावार्थः वाल्मीकि, नारद और अगस्त्य ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी यानी जीवन का वृत्तांत बताया है. जल में रहनेवाले, जमीन पर चलनेवाले और आकाश में विचरनेवाले, नाना प्रकार के जड़-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं –
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
भावार्थः उनमें से जिसने जिस समय जहां कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति और भलाई पाई है, वह सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए. वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है.
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
भावार्थः सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं. सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है. सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है.
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