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इंद्र भागकर देवगुरू बृहस्पति के पास पहुंचे और रक्षा का उपाय पूछा. बृहस्पति बोले- जहां शिव का अपमान हो रहा था, वहां आप सब उपस्थित थे. इस कारण सबको दंड भोगना पड़ेगा. प्राणों पर संकट देख सारे ऋषि विष्णुजी की ओर भागे.

उन्होंने कहा- नारायण आप यज्ञस्वरूप हैं. आपने यज्ञ और दक्ष की रक्षा न की तो वेद की मर्यादा खंडित होगी. श्रीहरि विवश थे. ब्रह्माजी के साथ वह यज्ञ की रक्षा के लिए बढ़े.

वीरभद्र दक्ष को खोज रहे थे. तभी उन्होंने श्रीविष्णु को शिवद्रोहियों की सहायता के लिए अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित संहारक की मुद्रा में देखा तो आश्चर्य औऱ क्रोध दोनों में भर गए.

वीरभद्र ने श्रीविष्णु को इसके लिए फटकारना और भला-बुरा कहना शुरू किया. फिर क्रोध में भरकर वीरभद्र ने कहा- तो मैं यह समझूं कि यह सब आपकी शह पर हुआ है. आप महादेव के द्रोही हैं.

विष्णुजी बोले- वीरभद्र तुम गलत समझ रहे हो. तुम स्वयं शिवजी के अंश हो. उनके प्रमुख सेवक हो लेकिन शिवजी का सम्मान तुमसे ज्यादा मैं करता हूं. वह मेरे गुरू हैं. उनके अपमान की बात सोचना भी पाप है.

शिवद्रोह की तो कल्पना भी नहीं कर सकता. परंतु यज्ञों की रक्षा का भार स्वयं शिवजी ने ही मुझे दे रखा है. दक्ष ने कर्मकांड पूरे किए हैं इसलिए शिवजी द्वारा दिए दायित्व की पूर्ति के लिए मैं यज्ञ रक्षा को वचनबद्ध हूं.

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