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क्षुव की तपस्या फलित हुई. श्रीविष्णु ने दर्शन दिए. क्षुव ने कहा- शिवजी की कृपा से दधीचि ने शक्तियां प्राप्त की हैं और उनका अपमान कर रहे हैं. वज्र भी निष्फल है. प्रभु मैं आपका शरणागत हूं. मेरे सम्मान की रक्षा में सहायता करें.
क्षुव की बात सुनकर श्रीहरि बोले- तुमने भी अच्छा आचरण नहीं किया. दधीचि शिवभक्त हैं. उनके साथ प्रतिशोध की बात न रखो. मैं स्वयं उन्हें तुम्हारे प्रति उदार बनाने और प्रसन्न करने का प्रयास करूंगा. तुम उचित समय की प्रतीक्षा करो.
अपना वचन पूरा करने के लिए श्रीहरि ने एक ब्राह्मण का वेश धरा और दधीचि के पास पहुंचकर एक वरदान देने का अनुरोध करने लगे. दधीचि बोले- शिवजी की कृपा से मुझे प्रत्यक्ष और परोक्ष का बोध हो जाता है. आप वास्तविक रूप में आ जाएं.
मैं आपके आने का प्रयोजन भली-भांति जानता हूं. शिवजी की कृपा से मैं संसार में अवध्य हूं. किसी भी छल-कपट का प्रयोग करके मेरा कोई अहित नहीं किया जा सकता.
विष्णुजी बोले- शिवजी की महिमा से कौन परिचित नहीं. मैं स्वयं शिवभक्त हूं किंतु शरणागत की रक्षा मेरा धर्म है. आप एक बार क्षुव को श्रेष्ठ कह दें. इससे आप छोटे नहीं होंगे लेकिन क्षुव के थोथे स्वाभिमान की रक्षा हो जाएगी. ऋषि को उदार होना चाहिए.
विष्णुजी आगे बोले- क्षुव का आग्रह निराधार है, किंतु उस समय उसकी जैसी मनःस्थिति है उसे देखकर आपसे कहा है. अपमान बोध से ग्रस्त राजा प्रजा के लिए कल्याणकारी नहीं हो पाता. मैं बाद में उसे बता दूंगा कि आपने क्षुव को श्रेष्ठ मेरे कहने पर माना था.
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