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प्राण निकलने से पूर्व दधीचि ने शुक्राचार्य को सहायता के लिए पुकार लिया. शुक्राचार्य आए और दधीचि का शरीर पुनः जोडकर जीवन बचा दिया. इस उपकार के बदले दधीचि ने शुक्राचार्य की विभिन्न प्रकार से स्तुति की तो वह प्रसन्न हो गए.
शुक्राचार्य ने दधीचि को मृतसंजीवनी (महामृत्युंजय) मंत्र का उपदेश देते हुए कहा- यह मंत्र अमरत्व प्रदान करने का साधन है. शिवजी का ध्यान करते हुए इस मंत्र की साधना करने से मृत्यु के भय से मुक्ति और सभी अभीष्ट की प्राप्ति होती है.
शुक्राचार्य के जाने के बाद दधीचि नैमिषारण्य चले गए और इस मंत्र की अखंड साधना करने लगे. उनके तप से शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा. दधीचि ने एक साथ तीन वरदान मांग लिए.
मेरी अस्थियां वज्र की हो जाएं जिसे कोई काट न सके, मैं किसी के हाथों न मारा जाऊं और सर्वत्र आत्मनिर्भर रहूं यानी किसी कार्य के लिए मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता न पड़े. शिवजी ने वरदान दे दिया.
दधीचि क्षुव के पास पहुंचे और उसके मस्तक पर प्रहार किया. क्षुव ने क्रोधित होकर दधीचि पर वज्र चलाया लेकिन शिवजी के आशीर्वाद के कारण व्रज निष्प्रभावी रहा. क्षुव ने लज्जा से पराजय स्वीकार की और वन में विष्णुजी के लिए तप करने लगे.
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