क्या सतीजी का योगाग्नि में भस्म हो जाना ऐसे ही अचानक हुआ था? जगदंबा इतना बड़ा कार्य अकारण करेंगी जिसके बाद सृष्टि पर ही संकट आ जाए. सतीजी के भस्म होने का सही अर्थ समझा ही नहीं गया. दांपत्य जीवन का रहस्य सिखाने के लिए शिव-सती ने की थी यह लीला.

सावन मास में हम आपके लिए विशेष शिव लीला कथाएं लेकर आएंगे. सावन शुरू होने से पहले आज बात जगदंबा के स्वरूप माता सती की. जब सती मिटती हैं तब पार्वती स्वरूप लेती  हैं. दोनों ही जगदंबा हैं. सती ने स्वयं को अग्नि में भस्म कर लिया. कहते हैं पिता द्वारा पति के अपमान को वह सहन न कर सकीं और इसीलिए स्वयं को भस्म कर लिया. उनके भस्म होने पर शिवजी ने प्रलयंकारी तांडव शुरू किया. सृष्टि का अस्तित्व संकट में आ गया. क्या आप सचमुच यही मानते हैं कि जगदंबा इतने छोटे से कारण से सृष्टि को संकट में डाल देंगी! जगतजननी माता आवेश में यह करेंगी या इसके पीछे है कोई बड़ी शिव-सती लीला.

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शिव-सती की वह लीला जिसे समझा नहीं गया या अपनी संकुचित दृष्टि से हम देख ही नहीं पाए. मेरा हृदय इस बात को स्वीकार ही नहीं कर सकता कि माता मान-अपमान जैसे छोटी बात के लिए अपने बच्चों को संकट में डाल देंगी. सती का भस्म होना और फिर शिव का क्रोध शिव-सती लीला भी तो हो सकता है. सतीजी के भस्म होने की घटना को अपनी बुद्धि से ऐसी शिव-सती लीला के रूप में देखने का प्रयास कर रहा हूं जिसमें मानव कल्याण छुपा है.

जो जगदंबा सारे संसार के पालन का उत्तरादायित्व लेती हैं. मायास्वरूप में श्रीहरि नारायण के साथ हैं, जो ज्ञान स्वरूप में श्रीब्रह्मा के साथ हैं जो साक्षात जगतजननी अन्नपूर्णा रूप में शिव के साथ हैं उन्होंने अपने आप को भस्म क्यों किया? यह शिव-सती लीला है, ज्ञान से भरपूर विचित्र लीला.

पुराणों की कथाएं क्षेपक में हैं. उनके पीछे के अर्थ को समझना होगा. मेरी दृष्टि तो बहुत छोटी है. यह रहस्य तो अनंत वर्षों की साधना के बाद कोई-कोई साधक ही समझ पाया है. फिर भी एक साधक श्रीतुलसीदासजी के दिए संकेतों के आधार पर इसे समझने का प्रयास करते हैं.

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शिव-सती लीला मानने का पहला कारण जो समझ पाता हूं-

शिवजी ने सतीजी को त्याग दिया. क्यों त्यागा है? उन्हें शिवजी की बात पर शंका है, उन्होंने श्रीराम के नारायण होने पर पर शंका है. जगतजननी सामान्य नारी जैसा व्यवहार दिखा रही हैं. तो ईश्वर को भी तो संकेत देना है कि अत्यधिक शंका के क्या परिणाम होते हैं.

सती-शिव दोनों ही संसार को संदेश देते हैं कि दांपत्य में बहुत ज्यादा शंकालु, बहुत ज्यादा जिद्दी नहीं होना चाहिए. अपने मन की बात थोपने के लिए खोखले तर्क नहीं गढ़ने चाहिए अन्यथा दांपत्य स्वाहा हो जाता है.

शिव-सती लीला मानने का दूसरा कारणः

शिवजी ने सतीजी को सामान्य आचरण की बात समझाई- बिना बुलावे कहीं न जाना. सतीजी नहीं मानीं. उन्होंने शिवजी को बाध्य करने के लिए दसों दिशाओं से घेरा. अपना दस विकराल रूप दिखाया. शिवजी को भयभीत करने का प्रयास किया-दस महाविद्या शक्तियों के रूप में. दस महाविद्या शक्तियों के बारे में जानें तो ये सर्वसमर्थ हैं. सात्विक रूप से भी और बलप्रयोग से भी. मारण-मोहन, उच्चाटन, सम्मोहन, टोना, तंत्र सबकुछ…

इसके पीछे एक बड़ा संदेश है. यदि दांपत्य जीवन में अपनी बात मनवाने के लिए आप अनुचित प्रयोग करते हैं तो दांपत्य का नाश होना तय है. यह बात सिर्फ स्त्री के लिए नहीं है. स्त्री-पुरुष दोनों के लिए है. दांपत्य के निर्वाह का दायित्व एक का नहीं होता, दोनों का होता है. शिव-सती ने मिलकर यह लीला इसलिए की ताकि संसार को दांपत्य का यह रहस्य बता सकें.

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शिव-सती लीला मानने का तीसरा कारणः

विवाह दो व्यक्तियों का मिलन नहीं है- दो कुल का मिलन है. दो कुल के रिश्तेदारों तक का मिलन है. सतीजी की बहनें चंद्रमा से ब्याही हैं. चंद्रमा सौंदर्य के देवता है. सतीजी शिवजी से ब्याही हैं. शिव औघड़दानी हैं, विरक्ति के प्रतिमूर्ति हैं. दिखावे का नाम शिव नहीं चंद्रमा है. इसलिए तो चंद्रमा को कोढ़ होता है और मुक्ति कौन दिलाता है- शिव. जो सबसे ज्यादा समर्थवान है वह कभी दिखावा नहीं करता. चुपके से लोगों की पीड़ा हरता है.

शृंगार से बाहरी सौंदर्य ही बढ़ सकता है, भीतरी नहीं. विलासी चंद्रमा को ससुर से कोढ़ी होने का शाप मिल जाता है लेकिन वही ससुर शिव को किसी भी प्रकार का शाप दे ही नहीं सकते- सामर्थ्य ही नहीं है. क्यों? यह दामाद सर्वसमर्थ है लेकिन किसी चीज की लालसा ही नहीं रखता तो ससुर क्या छीन लेंगे.

विवाह के उपरांत ससुराल पक्ष की ओर जो बहुत लालायित होकर देखते रहते हैं उन्हें अपमान झेलना होता है, जैसे चंद्रमा के साथ हुआ. हमेशा पाने की आस लगाए रहने वाले दामाद को ससुराल पक्ष के चरणों में लोटना पड़ेगा, पर देने का भाव रखने वाला दामाद ससुर से पहले पूजा जाएगा जैसा कि प्रजापति के यज्ञ में हुआ था. तो महान पाने वाला नहीं, पाने की इच्छा न रखने वाला है.  लालच त्यागिए.

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शिव-सती लीला मानने का चौथा कारणः

ससुर पिता समान होता है. उसे पिता बनना भी पड़ेगा तभी दामाद से पुत्र का स्वभाव खोजें. पिता अपमान पीता है, पुत्र के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं रखता. यदि पिता के सामने पुत्र को बहुत आदर मिल जाए तो कोई पिता द्वेष का भाव नहीं रखता, गर्व का भाव रखता है. दक्ष ने ऐसा नहीं किया था. पुत्र के प्रति पिता प्रतिशोध का भी भाव नहीं रखता. ऐसा करने वाला पिता अपनी पुत्री के जीवन को आग लगा देता है. दक्ष के कुंड में सती के दाह का यही संकेत समझना चाहिए.

शिव-सती लीला मानने का पांचवा कारणः

ससुर को अपने दो जमाइयों के बीच भेदभाव नहीं रखना चाहिए. ऐसा करके वह अपने दोनों ही पुत्रियों के जीवन को लील जाएगा. शिव जी के साथ प्रतिशोध रखके दक्ष ने सती को गंवाया और चंद्रमा को बहुत ज्यादा सर पर चढ़ाकर अपनी 23 कन्याओं का जीवन खराब किया. उसे कोढ़ी हो जाने का शाप देना पड़ा. पिता का भेदभाव परिवार में रोग का कारण होता है.

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शिव-सती लीला मानने का छठा कारणः

यदि पुत्री पिता से नाराज है तो उसे अपने क्रोध के प्रदर्शन के लिए उचित समय का चयन करना चाहिए. जब पिता की प्रतिष्ठा से जुड़ा कोई आयोजन हो रहा हो तो उसे वहां पिता को अपमानित नहीं करना चाहिए. इस तरह वह अपने ससुराल और मायगे दोनों का नाश कर देती है. दक्ष का यज्ञ अधूरा रहा, शीश कट गया और बकरे का सर लगाया गया. सती का दहन हुआ, शिवजी क्रोध के कारण अनंतकाल के समाधि में गए. दोनों ही स्थान पर बाधा हुई.

माता सतीजी चार अग्नि में जलीं हैं- “तपै अँवा इव उर अधिकाई।”

मन की अग्नि में, दूसरी-क्रोधानल में, तीसरी- यज्ञानल में और चौथी- योगानल में. पति-पत्नी में से किसी को मन में कोई बात खटक गई तो उसे यत्नपूर्वक निकालने का प्रयास कीजिए. आपसी सलाह से. नहीं किया तो वह क्रोधानल बनेगी. क्रोध के रूप में मन में रहेगी. जो कमजोर दिखेगा उसे जलाएगी- जिह्वा हिंसा से या शारीरिक हिंसा से.

जैसे ही आभास हो जाता है कि नहीं अब इसके आगे गलत है. क्रोध बहुत हो चुका तो खुद को यज्ञानल यानी यज्ञ की अग्नि में तपाना चाहिए. आपने दांपत्य की शपथ यज्ञअग्नि में ली थी. उसी यज्ञअग्नि को साक्षी मानिए और पश्चाताप के लिए आगे बढ़िए. जिसके साथ तन और मन का मिलन है उसके साथ क्या हिचक क्या परहेज! उसके साथ मान-अपमान के भाव को त्याग करिए. प्रेम की पहल कीजिए.

सतीजी ने योगाग्नि में भस्म होने से पहले दक्ष और समस्त देवताओं को संबोधित करते हुए कहा था कि मैं पुनः शरीर धारण करके शिव से जा मिलूंगा. इस बार मैं क्रोध नहीं, शीतलता के साथ दांपत्य का निर्वाह करूंगी. उन्होंने हिम यानी बर्फ के राजा हिमालय के घर में जन्म लिया. इसके पीछे संदेश है कि मन मे पश्चाताप का भाव अपने जीवनसाथी में देखें तो समझें कि वह योगाग्नि में जलकर शुद्ध हो चुका है. उसे पूरे हृदय से पुनः स्वीकार करें.

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माता सतीजी ने कहा कि श्री महादेव जी जगत की आत्मा और जगत के पिता तथा सबके हितकारी हैं. मेरा पिता मंदबुद्धि है जो कि उनकी निंदा करता है. मेरा यह शरीर मेरे इन्हीं पिता के वीर्य से उत्पन्न हुआ है. अतः मैं इस शरीर का ही त्याग कर दूंगी.

उर धरि चंद्र मौलि बृषकेतू।।

माँ सती ने योगाग्नि को प्रकट किया. चंद्रमौलि को हृदय में धारण करके उन्होंने अग्नि प्रकट की. उन्हें अपने शरीर को अग्नि में तपाना है. चंद्रमा में अमृत है, वह ताप दूरकर शीतलता प्रदान करता है. इसलिए चंद्रमौलि शंकर जी को हृदय में धारण किया. यहां से पुनः जो शुरुआत होगी वह दुर्भावनाओं के साथ नहीं, प्रेम भावनाओं के साथ.

बृषकेतु को हृदय में धारण करने का भाव समझिए- वृषभ, धर्म का प्रतीक है और यह भगवान शिव की पताका में है. कुछ ऐसे कार्य हुए हैं जो धर्म के अनुरूप नहीं हैं तो निश्चय करके कि अब धर्मसंगत कार्य ही करेंगे, अपने शरीर यानी पुराने विचारों का त्यागकर देना चाहिए.

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( जो भी व्याख्या की है उसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि सारा भार स्त्री के ऊपर डालना समझा जाए. माता सती इस लीला की एक अंग है. शिव-सती दोनों मिलकर लीला कर रहे हैं. पति-पत्नी दोनों को यह संदेश दे रहे हैं. दांपत्य निर्वाह का दायित्व दोनों का बराबर का है. कुछ अनुचित कहा हो तो क्षमा करें…)

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