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अपने पिता को चिंतित देखकर गृहपति ने पिता की आज्ञा लेकर शिव आराधना के लिए काशी जाने का निर्णय किया. काशी में वह प्रतिदिन एक सौ आठ कलशों से भगवान का अभिषेक और शिवमंत्र का जप करने लगे.
जन्म से बारहवें वर्ष आने पर इंद्र प्रकट होकर बोले- विप्रवर, अपनी इच्छानुसार वर मांग लें. गृहपति ने कहा- अहिल्या का सतीत्व नष्ट करने वाले से मुझे कुछ नहीं चाहिए. मैं महादेव के अतिरिक्त किसी से कोई वरदान नहीं चाहता.
गृहपति की बात से इंद्र क्रोधित हुए और वज्र से डराने लगे. गृहपति इससे मूर्च्छित हो गए. तत्काल महादेव प्रकट हुए और गृहपति से बोले- मेरे भक्त का इंद्र तो क्या यम भी नहीं कुछ बिगाड़ सकते.
इंद्र भय से कांपने लगे और उन्होंने महादेव से अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी. महादेव ने गृहपति को वरदान दिया- आज से मैं तुम्हें अग्निपद प्रदान करता हूं. तुम्हारे द्वारा स्थापित यह लिंग काशी में अग्निश्वर नाम से प्रसिद्ध होगा.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्
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jai shib ji