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इसी विश्वास के साथ विश्वानर महादेव की आराधना करते रहे. विश्वानर को तप करते तेरह मास हुए. तेरहवें मास में जैसे ही वह एक दिन गंगास्नान के बाद शिवलिंग की पूजा के लिए पहुंचे तो उन्हें वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया.
उसके मस्तक पर पीली जटा चमक रही थी और मुखमंडल सूर्य की तरह प्रकाशित था. भस्म शृंगार से युक्त वह अलौकिक बालक श्रुतियों का पाठ कर रहा था. मुनि ने बालरूपधारी शिव की अभिलाषापूर्ण करने वाले आठ पदों से स्तुति की.
पूजा से प्रसन्न हो भगवान शिव ने विश्वानर से कहा- आप निश्चिंत होकर घर जाइए. मैं समय आने पर आपके घर में पुत्र रूप में आउंगा. मेरा नाम गृहपति होगा. मैं परम पावन तथा समस्त देवताओं को प्रिय होउंगा.
कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए. स्वयं पितामह ब्रह्मा ने दिव्य बालक का जातकर्म संस्कार किया बालक का नाम गृहपति रखा.
नवां वर्ष आने पर गृहपति को देखने देवर्षि नारद आए. उन्होंने कहा- मुनिवर आपका पुत्र परम भाग्यवान है किंतु मुझे आशंका है कि बारहवें वर्ष में इसपर बिजली और अग्नि का भय आएगा.
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jai shib ji