पुरंजन कथा के पहले भाग में आपने पढ़ा कि पुरंजन आसक्ति में डूबा सब कुछ भूल गया था. सांसारिकता में फंसकर उसे अपने परिवार के अलावा कुछ नजर न आता था.
उधर काल की पुत्री जरा ने नारद से प्रेमदान मांगा लेकिन नारद ने ब्रह्मचारी होने के कारण जरा का अनुरोध ठुकरा दिया. जरा ने नारद को शाप दिया- आप एक स्थान पर टिक नहीं पाएंगे. अब आगे…
नारद से ठुकराए जाने पर जरा यवनराज भय के पास पहुंची. भय ने जरा से कहा- तुम्हारे भयानक रूप के कारण कोई स्वेच्छा से स्वीकारेगा नहीं. इसलिए तुम्हें जो पुरुष भाए उसे बल से प्राप्त करो.
भय ने उसे बहन बना लिया. उसने जरा को वादा किया कि इस ब्रह्मांड में वह जिन पुरुषों को बलपूर्वक प्राप्त करना चाहेगी, वह अपने भाई प्रज्वर के साथ जरा की सहायता करेगा.
जरा को पुरंजन पसंद आ गया. उसने पुरंजन को आलिंगन में भरा. उसके प्रभाव से पुरंजन का बल नष्ट हो गया. वह अपनी प्रजा और पुत्रों के लिए शोक करने लगा.
यवन सेना पुरंजन को पकडकर ले चली. वह उन-उन स्थानों से गुजरा जहां उसने जीवों की बेवजह हत्या की थी. वे सभी उस पर आक्रमण करके कष्ट पहुंचाते रहे.
मृत्यु के समय पुरंजन को सिर्फ अपनी पत्नी का ध्यान रहा था इसलिए उसका अगल जन्म एक स्त्री के रूप में हुआ. इस जन्म में वह विदर्भराज की अपूर्व सुंदरी पुत्री बना.
बड़े होने पर उसका विवाह मलयध्वज जैसे सदाचारी और धार्मिक राजा से हुआ. वृद्ध होने पर राजा ने अपने पुत्रों के बीच राज्य को बांटा और पत्नी संग संन्यास लेकर वन चले गए.
मलयध्वज ने शरीर त्यागा तो रानी भी उनके साथ सती होने चलीं. तभी अविज्ञाता वहां आ गए. उसने रानी को बताया- मैं तुम्हारा पुराना मित्र और शुभचिंतक अविज्ञाता हूं.
हम दोनों मानसरोवर के हंस थे और साथ-साथ सहस्त्रों वर्ष रहे. तुम्हारे मन में विषय भोग की इच्छा पैदा हुई और तुम मेरा त्याग करके पृथ्वी पर चली आई.
अविज्ञाता ने उसे ज्ञान दिया- तुम न तो विदर्भकुमारी हो न पुरंजन. माया में पड़कर तुमने नौ द्वारों वाले नगर को अपना घर बनाया और स्वयं को भूल गई. उसके दस सेवकों को तुमने दास समझा.
जिन दस सिरों को तुम दास मानकर खुद को भूल गई वे पांच कामेंद्रियां और पांच ज्ञानेन्द्रियां थीं. जिस पत्नी के इशारे पर नाचते अच्छे-बुरे का फर्क करने की जरूरत नहीं समझी, वह मन था.
पांच सिरों वाले नाग, पांच इन्द्रिय विषय थे जो नगर रूपी तुम्हारे शरीर की रक्षा करते रहे. तुम्हारी 360 सेविकाएं दिन और रात थे जिनसे वर्षों तक लड़ने के बाद इन्द्रियां हार गयीं.
जरा यानी बुढ़ापे ने तुम्हें जब बाहों में जकड़ा तब इंद्रियां हार गईं. प्रज्वर यानी सभी तरह के रोगों ने तुम्हें चंगुल में ले लिया और भयभीत किया.
शरीर और मन के जाल में फंसे तुम दुबारा मन के ही रूप में जन्मे और आज तक स्वयं को वही मन ही समझ रहे हो.
इस मन से मोह को अलग करो. फिर से मुझ अविज्ञाता, जो विधाता के रूप में जीवों का मित्र है लेकिन उसे कोई पहचान नहीं पाता, के संग चले चलो. मुझसे मिलने के बाद तुम्हारे भटकाव का अंत हुआ.
नारद ने राजा बर्हिषत को इस कथा का सार समझाया और उन्हें मोह का त्यागकर अविज्ञाता रूपी ईश्वर में खो जाने को कहा.
राजा को ज्ञान हुआ. उसने सारे कर्मकांड त्याग दिए और ईश्वर की खोज को अपना लक्ष्य बनाकर यज्ञ के स्थान पर तप के कार्य में जुट गया.
कल भागवत चर्चा में पढ़िए प्रियव्रत की कथा जो रात को भी दिन की तरह उज्जवल बनाने के संकल्प से चला और उस दौरान सात महाद्वीपों की रचना हुई.