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उसने नन्दभद्र को सांत्वना देने का ढोंग करते हुए कहा- तुम्हारे जैसे धर्मात्मा को यह दु:ख उठाना पड़ रहा है. लगता है कि धर्म कर्म सब ढकोसला है. कई बार सोचा कि मैं तुमसे कहूं पर संकोचवश कहा नहीं.
दिन में तीन बार पूजा, स्तुति सब व्यर्थ है. भैया नंदभद्र! धर्म के नाम पर क्यों इतना कष्ट उठाते हो? जब से तुम इस पत्थर-पूजन में लगे हो, तब से कोई अच्छा फल तो मिला नहीं इकलौता पुत्र और पत्नी दोनों बीमार हैं. भगवान् होते तो क्या ऐसा फल देते?
पुण्य और पाप सब कुछ कल्पना है. नंदभद्र! तुम्हें तो मेरी यही सलाह होगी की झूठे धर्म को छोड़ आनंदपूर्वक खाओ, पीओ और भोगो, यही सत्य है.
सत्यव्रत की बातों का नंददभद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा. वह बोले-सत्यव्रतजी! आप अपने आप को ही धोखा दे रहे हैं. क्या पापियों पर दु:ख नहीं आते? क्या उनके पुत्र, स्त्री बीमार नहीं होते?
जब सज्जन दु:खी होता है, तो लोग सहानुभूति जताते हैं. पर दुराचारी के दुःख पर कोई सहानुभूति नहीं दिखाता. अत: धर्म पालन करने वाला ही ठीक है. अंधा सूर्य को नहीं जानता, पर सूर्य तो है. ईश्वर के बिना संसार का संचालन नहीं हो सकता.
सत्यव्रत ने उसे टोक कर पूछा- देवता हैं तो दिखायी क्यों नहीं देते? नंदभद्र ने कहा- देवता आपके पास आकर याचना नहीं करेंगे कि हमें आप मानिए. बातचीत बहस में बदलने लगी.
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