“अब थोड़ा बहुत तो चलता है”, “छोटे-मोटे पाप ईश्वर कर देते हैं माफ”. ज्यादातर लोग अपने छोटे-छोटे पाप पर खोखला पर्दा डालने के लिए इसी का सहारा लेते हैं. आपके साथ भी ऐसा होता है क्या?  क्या आपके लिए भी जरा सा पाप चल जाता है क्या? फिर तो जरूर पढ़ें.


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ये छोटे-छोटे पाप ही सबसे ज्यादा खतरनाक होते हैं. जिन्हें हम छोटे पाप समझकर अनदेखी करते जाते हैं और उसका आनंद लेते जाते हैं. वे पाप उन पापों से ज्यादा खतरनाक साबित होते हैं जिन्हें हम सच में पाप मानते हैं.

आप सोचने लगे होंगे कि मैं क्या कह रहा हूं. छोटी बात को बेवजह बढ़ा-चढ़ाकर बता रहा हूं? आपकी सोच बदल जाएगी अगर धैर्य से इसे पूरा पढ़ सकें, समझ सकें.

एक ब्राह्मण दरिद्रता से बहुत दुखी होकर राजा के यहां धन याचना करने के लिए चल पड़ा. कई दिन की यात्रा करके राजधानी पहुंचा और राजमहल में प्रवेश की चेष्टा करने लगा. उस नगर का राजा बहुत चतुर था. वह सिर्फ सुपात्रों को दान देता था. याचक सुपात्र है या कुपात्र इसकी परीक्षा होती थी. परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने उचित व्यवस्था कर रखी थी.

ब्राह्मण ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकलकर सामने आई.

वैश्या ने पूछा- हे ब्राह्मण! राजमहल में क्यों जाना चाह रहे हो?

ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मैं राजा से कुछ धन मांगने आया हूं. परिवार के गुजारे के लिए थोडी सहायता मिल जाए इसलिए मुझे राजा से मिलना है.

वेश्या ने कहा- आप राजा के पास धन मांगने जरूर जाएं पर इस द्वार पर राजा ने मेरा अधिकार दे रखा है. इस दरवाजे से तो बिना मेरी अनुमति के जाने का अधिकार किसी को नहीं है. मैं अभी कामपीड़ित हूं. मैं उसे ही यहां से भीतर जाने दूंगी जो मुझसे रमण करके संतुष्ट करे.

ब्राह्मण ने सुना तो धिक्कार-धिक्कार कहने लगा. वैश्या ने कहा कि फिर तो आपको दूसरे दरवाजे से जाना होगा.

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ब्राह्मण ने अधर्म करने से बेहतर समझा दूसरे द्वार से जाना.दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगे.

दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया. उसने कहा इस दरवाजे पर महल के मुख्यरक्षक का अधिकार है. यहां वही प्रवेश कर सकता है जो हमारे स्वामी से मित्रता कर ले. हमारे स्वामी को मांसाहार अतिप्रिय है. भोजन का समय भी हो गया है. इसलिए पहले आप भोजन कर लें फिर प्रसन्नतापूर्वक भीतर जा सकते हैं. आज भोजन में हिरण का मांस बना है.

ब्राह्मण ने कहा- मैं वेदपाठी ब्राह्मण हूं. मांसाहार नहीं कर सकता. यह अनुचित है.

प्रहरी ने साफ-साफ बता दिया कि फिर आपको इस दरवाजे से जाने की अनुमति नहीं मिल सकती. किसी और दरवाजे से होकर महल में जाने का प्रयास कीजिए.

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ब्राह्मण तीसरे दरवाजे पर पहुंचा और प्रवेश करने लगा. वहां कुछ लोग मदिरा और प्याले लिए बैठे मदिरा पी रहे थे. ब्राह्मण उन्हें अनदेखा करके घुसने लगा. तभी एक प्रहरी आया और कहा थोड़ा हमारे साथ मद्य पी लो तभी भीतर जा सकते हो. यह दरवाजा सिर्फ मदिराप्रेमियों के लिए है.

ब्राह्मण को मदिरापान भी स्वीकार न था. वहां से घूमा और चौथे दरवाजे की ओर चल दिया.

चौथे दरवाजे पर पहुंचकर ब्राह्मण ने देखा कि वहां जुआ हो रहा है. उसे बताया गया कि यह द्वार तो जुआरियों के लिए आरक्षित है. जो जुआ खेलते हैं वे ही यहां से भीतर घुस सकते हैं.

जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है. ब्राह्मण बड़े सोच-विचार में पड़ा. अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं. धन की मुझे बहुत जरूरत है इसके लिए भीतर प्रवेश करना जरूरी है. बच्चे प्रतीक्षा में हैं कि मैं कुछ धन लेकर आऊँगा. अब क्या करें.

एक ओर धर्म था तो दूसरी ओर धन. दोनों के बीच घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा. ब्राह्मण जरा सा फिसला.

उसने सोचा जुआ छोटा पाप है. इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा. मेरे पास एक रुपया बचा है. क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूं और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊं.

विचारों को विश्वासरूप में बदलते देर न लगी. ब्राह्मण जुआ खेलने लगा.

एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ. जीत पर जीत होने लगी. अब पैसे आने ही लगे तो ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया. अब उसका मन जुए में रम गया था. शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया. शाम को जुआ बन्द हुआ. ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बांध ली. दिनभर खाने को कुछ मिला न था. भूख जोर से लग रही थी. पास में कोई भोजन की दुकान न थी.

पास में गलत तरीके से कमाए पैसे थे तो बुद्धि भी भटकने लगी. ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है कौन देखता है? चलकर दूसरे दरवाजे पर मांस का भोजन मिलता है वही क्यों न खा लिया जाए? स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दोहरा लाभ है.

जरा सा पाप ही तो है. थोड़ा बहुत पाप करने में कुछ हर्ज नहीं. मैं तो लोगों के पाप के प्रायश्चित कराता हूं. फिर अपने पाप की क्या चिंता है. कर लेंगे कुछ न कुछ पाप से मुक्ति का उपाय. ब्राह्मण ने मांस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन छककर खाया.

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अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिए अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है. तामसी, विकृत भोजन करने वाले अक्सर पान, बीड़ी, शराब की शरण लिया करते हैं. कभी मांस खाया न था. इसलिए पेट में जाकर मांस अपना करतब दिखाने लगा.

अब तो उन्हें मदिरापान की भी आवश्यकता महसूस हुई.

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