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कालभीति के ऐसा कहने पर आगंतुक हंसने लगा. उसने दाहिने अंगूठे से जमीन कुरेदकर एक बहुत बड़ा गड्ढा तैयार किया.
फिर उसी में वह सारा जल ढुलका दिया. गड्ढा भर गया, पानी बचा रह गया. फिर उसने अपने पैर से ही कुरेदकर एक तालाब बना दिया और बचे हुए जल से उस तालाब को भर दिया.
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यह अद्भुत दृश्य देखकर कालभूति जरा भी नहीं चौंके.
आगंतुक बोला- ब्राह्मणदेव!आप हैं तो मूर्ख, परन्तु बातें पंडितों सी करते हैं. लगता है आपने विद्वानों की बात नहीं सुनी, कुआं दूसरे का, घड़ा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है. एक पानी पिलाता है और एक पीता है. सब समान फल के भागी होते हैं. ऐसा ही मेरा भी जल है. तुम धर्म के ज्ञाता हो; फिर क्यों इसे नहीं पिओगे.
कालभीति ने विचार किया- यदि एक कार्य में अनेक सहायक हों तो काम करने वाले को मिलने वाला फल बंटकर समान हो जाता है. बात तो ठीक ही कहता है.
कालभीति ने उस मनुष्य से कहा- आपका यह कहना ठीक है. कुएं और तालाब का पानी पीने में दोष नहीं है. फिर भी आपने तो अपने घड़े के जल से ही इस गड्ढे को भरा है. यह बात सामने देखकर मैं हर्गिज इसे नहीं पीयूंगा.
कालभीति के हठ पर वह पुरुष हंसता हुआ अंतर्ध्यान हो गया.
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अब कालभीति को अचरज हुआ. सोचने लगे कि ये क्या किस्सा है. इतने में ही उस बेल के पेड़ के नीचे धरती फाड़ कर सुन्दर चमचमाता शिवलिंग प्रकट हो गया.
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Hari om tat sat
Jai shree mahakal
Jai bhole