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कर्कोटक ने नल को दो दिव्य वस्त्र दिए. उसने नल से कहा कि जब भी अपने पूर्व रूप में आना हो यह वस्त्र पहन लेना. कर्कोटक अंर्तध्यान हो गया. नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गए.
वहां वह बाहुक के नाम से रहने लगे. राजा के घोड़ों के प्रशिक्षण का कार्य मिल गया. राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी. सांप के डसे जाने से वह कुरूप हो गए थे. इसलिए ऋतुपर्ण के पास उन्हें कोई ना पहचान सका.
राजा विदर्भ को समाचार मिला कि दामाद नल और पुत्री राजपाटविहीन होकर वन में चले गए हैं. उन्होंने सुदेव नामक ब्राह्मण को नल दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा.
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खोजते-खोजते सुदेव को दमयंती राजमहल में दमयंती में दिख गई. दमयंती ने भी सुदेव को पहचान लिया. वह परिवार में सबका कुशल-मंगल पूछते रो पड़ी. सुदेव ने राजमाता को दमयंती का वास्तिवक परिचय दिया. दमंयती वास्तव में राजमाता की बहन की पुत्री थी.
दमयंती पिता के पास आ गई थी और नल को भी एक आसरा मिल गया था. दमयंती नल के लिए उदास रहती थी. उसने अपनी माता से कहा- यदि मेरे पति से मेरा मिलन न हुआ तो तो मैं प्राण त्याग दूंगी. उन्हें खोजने के लिए लोगों को हर ओर भेजिए. नल को खोजने के लिए ब्राह्मणों का एक दल नियुक्त किया.
दमयंती ने ब्राह्मणों को एक रहस्य बताया- आप जहां भी जाएं वहां भीड़ में यह कहें कि तुमने आधी साड़ी में दासी को जिस अवस्था में छोड़ा था, वह आपकी प्रतीक्षा कर रही है. ब्राह्मण हर जगह जाकर यही बात सुनाने लगे. कई दिनों बाद एक ब्राह्मण वापस आया.
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एक ब्राह्मण ने राजा ऋतुपर्ण के यहां वही बात दोहराई. जब वह चलने लगा तब राजा के सारथी बाहुक ने जो कि नल थे उसे एकान्त में बुलाया.
बाहुक ने कहा- उच्चकुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी दें तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं. त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति का मारा है इसलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं. वह उस समय बहुत परेशान था. जब प्राणरक्षा के लिए जीविका चाह रहा था तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए.
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