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व्याध दमयन्ती पर मोहित हो चुका था. वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे प्रभावित करने की कोशिश करने लगा. दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई. व्याघ ने दमयंती के साथ व्याभिचार का प्रयास किया.
दमयंती ने क्रोधित होकर शाप दिया- मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े. दमयंती के कहते ही व्याध के प्राण निकल गए.
दमयंती राजा नल को खोजती चलती रही. तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती एक तपोवन दिखा जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं. दमयन्ती ने ऋषियों को अपना परिचय देकर सारी कहानी सुनाई. तपस्वियों ने उसे आशीर्वाद दिया कि नल को शीघ्र ही निषध का राज्य वापस मिल जाएगा. उसके शत्रु भयभीत होंगे व और कुटुंबी आनंदित होंगे. ऋषि अंर्तध्यान हो गए.
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दमयंती रोती हुई एक अशोक के वृक्ष के पास पहुंचकर बोली तू मेरा शोक मिटा दे. तू अपने शोक नाशक नाम को सार्थक कर. दमयन्ती ने अशोक की परिक्रमा की और वह आगे बढ़ी.
आगे उसे व्यापारियों का एक झुंड दिखा. वे चेदिदेश जा रहे हैं. उनके साथ दमयंती चल पड़ी. रास्ते में जंगली हाथियों के झुंड ने दल पर धावा बोला. दमयंती वहां से किसी तरह जान बचाकर भागी और राजा सुबाहु के नगर में पहुंची. उस समय राजमाता महल के बाहर खिड़की से देख रही थीं.
राजमहल की छत से रानी ने दमयंती को देखा तो सोचा ऐसी रूपवती से शृंगार के गुर सीखने चाहिए. उसे अपने आप बुलाकर अपनी सेवा में लगा लिया. दमयंती ने रानी की सेवा की बात तो स्वीकार ली किंतु तीन शर्त रखे.
दमयंती ने कहा- पहली शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी. दूसरी शर्त मैं किसी कै पैर नहीं धोऊंगी. तीसरी शर्त कि मैं परपुरुष से बात नहीं करुंगी.
रानी ने शर्तें मंजूर कर लीं. दमयंती महल में ही रहने लगी.
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जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी. तभी नल को आवाज आई. राजा नल- मुझे बचाओ. नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था.
उसने नल से कहा- मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं. मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था. उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हें न उठावें, तब तक यहीं पड़े रहना. उनके उठाने पर तू शाप से छूटेगा. शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता.
नल कर्कोटक को उठाकर दावानल से बाहर ले आए. कार्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो. कुछ कदम गिनकर चलो. राजा नल गिनती करके कदम रखने लगे.
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उन्होंने ज्योंहि पृथ्वी पर दसवां कदम रखा तो उनके मुंह से निकला-दस. कर्कोटक ने उन्हें डस लिया. कर्कोटक ने नियम बना रखा था कि जब कोई बोलेगा डंस तभी वह किसी को डंसेगा, अन्यथा नहीं.
नल हतप्रभ थे. उपकार का बदले में ऐसा अपकार.
तब कर्कोटक ने कहा- महाराज इसी में आपका लाभ है. आपको कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डंस के आपका रूप बदल दिया है. कलियुग ने आपको बहुत दुख दिया है. अब मेरे विष से वह आपके शरीर में बहुत दुखी रहेगा. आपने मेरी रक्षा की है. मेरे प्रभाव से हिंसक पशु-पक्षी शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा.आपपर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा. युद्ध में हमेशा आपकी जीत होगी.
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