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सही बात तो यह है कि यह सब उसी प्रभु की लीला है. ऐसे में तो क्या शिकार और क्या तो शिकारी. शिकारी से इस तरह ज्ञान की बात सुनकर संयमन ने कहा कि तुम कौन हो जो इतने तर्क सहित अपनी बात रख रहे हो.
शिकारी कोई ज़वाब नहीं देते हुए एक लोहे का जाल लेकर आया. जाल को सूखी लकड़ियों के ऊपर डाल दिया. फिर संयमन के हाथ एक लुकाठी देकर कहा- विप्रवर इन लकड़ियों में आग लगा दें.
संयमन के आग लगाने की देर थी कि देखते ही देखते सूखी लकड़ियां धधककर जलने लगीं. जाल के विभिन्न छेदों से अग्नि की ज्वाला लहराने लगी.
शिकारी ने आग की ओर इशारा करते हुये कहा- विप्रवर आप इन छेदों में से निकलती आग की कोई एक ज्वाला या अग्निपुंज उठा लें क्योंकि अब मैं आग बुझाउंगा.
कुछ क्षण बाद शिकारी ने पानी से भरकर एक घड़ा आग पर फेंका तो पल भर में ही धधकती आग शांत हो गयी. सारा दृश्य पहले जैसा हो गया.
शिकारी बोला- जो आग आपने चुनी थी वह मुझे दे दें. उसी के सहारे मैं अपना जीवनयापन करुंगा. संयमन ने आग पर निगाह डाली पर वहां अब आग कहां! आग की सभी ज्वालायें कब की शांत हो चुकी थीं. संयमन आंख मूंद कर शांत बैठ गये.
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