बड़ी दुविधा थी. भारती देवी ने इसका रास्ता निकाला. जाने से पहले उन्होंने दोनोँ विद्वानोँ के गले मेँ एक-एक फूलमाला डालते हुए कहा, येँ मालाएं मेरी अनुपस्थिति मेँ आपके हार और जीत का फैसला करेँगी.
देवी भारती की अनुपस्थिति में शास्त्रार्थ विधिवत चलता रहा. कुछ समय पश्चात् देवी भारती लौटीं. उन्हें निर्णय सुनाना था. उन्होंने निर्णायक दृष्टि से दोनों का बारी-बारी से परीक्षण किया और शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया.
मंडन मिश्र इस निर्णय को स्वीकार करके शांत भाव से थे. पर शास्त्रार्थ के साक्षी दर्शक हैरान थे कि बिना किसी आधार के इस विदुषी ने अपने पति को कैसे परास्त घोषित कर दिया.
एक विद्वान नेँ देवी भारती से नम्रतापूर्वक कहा- आप तो शास्त्रार्थ के मध्य ही चली गई थीँ फिर वापस लौटते ही आपनेँ ऐसा फैसला कैसे दे दिया?
देवी भारती ने मुस्कुराकर जवाब दिया- जब भी कोई विद्वान शास्त्रार्थ मेँ पराजित होने लगता है और उसे जब हार की झलक दिखने लगती है तो वह क्रुद्ध हो उठता है. क्रोध से शरीर का ताप बढ़ जाता है.
मेरे पति के गले की माला उनके क्रोध की ताप से सूख चुकी है जबकि शंकराचार्यजी की माला के फूल अभी भी पहले की भांति ताजे हैँ. इससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंची कि शंकराचार्य की विजय हुई है.
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आपका आभार, कथाsमृत पान से निश्चित ही सभी अन्धकार नष्ट हो जाते है, ज्ञान नेत्रों जिनका उद्देश्य केवल और एकमात्र यही है हरिहर दर्शन करना, हरिकथा इनको जाग्रत करने का एक सुलभ साधन है, आपकी अति कृपा हुई जो मुझे आज आपके पेज पर आने का अवसर मिला, भगवान की कृपा का कोई अंत ही नही है, इसी प्रकार हरिकथा भी अनंतानंत है, भगवान से प्रार्थना है कि इस सौभाग्य को नित्यप्रति करें !