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चलते-चलते उसका नगर आ गया. उसे घर को देखने की इच्छा हुई. उसने संन्यासी से बड़ी विनती की- महाराज मेरे घर चलें. कम से कम 15 दिन हम घर पर रूकते हैं. सब निपटाकर फिर मैं आपके साथ निकल जाउंगा. संन्यासी मुस्कुराने लगे और खुशी-खुशी तैयार हो गए.

उसकी जिद पर संन्यासी रूक गए और उसे बारीकी से देखने लगे. सोलहवें दिन अपना सामान समेटा और निकलने के लिए तैयार हो गए. व्यक्ति ने कहा-महाराज अभी थोड़ा काम रहता है. पेड़-पौधों का इंतजाम कर दूं. बस कुछ दिन और रूक जाएं निपटाकर चलता हूं.

संन्यासी ने कहा- तुम हृदय से अच्छे हो लेकिन किसी भी वस्तु से मोह त्यागने को तैयार ही न हो. मेरे साथ चलने से तुम्हारा कल्याण नहीं हो सकता. किसी भी संन्यासी के साथ तुम्हारा भला नहीं हो सकता. उसने कहा- कोई है ही नहीं तो फिर किसके लिए लोभ-मोह करूं.

संन्यासी बोले- यही तो और चिंता की बात है. समाज को परिवार समझ लो, उसकी सेवा को भक्ति. ईश्वर को प्रतिदिन सबकुछ अर्पित कर देना. तुम्हारा कल्याण हो इसी में हो जाएगा. कुछ और करने की जरूरत नहीं.

वह व्यक्ति उनको कुछ दूर तक छोड़ने आया. विदा होते-होते उसने कहा कि कोई एक उपदेश तो दे दीजिए जो मेरा जीवन बदल दे. संन्यासी हंसे और बोले- सत्य का साथ देना, धन का मोह न करना. उन्होंने विदा ली.

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