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उसी समय उन्हें निर्गुण ब्रह्म की आकाशवाणी सुनाई पड़ी- प्रकृति और पुरुष तत्व तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार हो सके.

उसके बाद भगवान शिव ने तपोस्थली के रूप में पांच कोस में फैले एक तेजोमय नगर का निर्माण किया जो शिव का ही साक्षात रूप था. उसके बाद उन्होंने उस नगर को प्रकृति और पुरुष के पास भेजा, जो उनके समीप पहुंचकर आकाश में ही स्थित हो गया.

तब पुरुष यानी श्रीहरि ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तक तपस्या की. उनकी तपस्या इतनी घोर थी कि श्रीहरि रूपी पुरुष के शरीर से श्वेतजल यानी पसीने की अनेक धाराएँ फूट पड़ीं.

उस पसीने से सम्पूर्ण आकाश भर गया. वहां पसीने के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था. उसके बाद भगवान श्री हरि मन ही मन उश विचित्र स्थिति का विचार करते हुए उसका अवलोकन करने लगे.

उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते के लिए उन्होंने अपना सिर हिलाया तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी. श्रीहरि के कर्ण यानी से मणि के गिरने के कारण वह स्थान ‘मणिकर्णिका-तीर्थ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया.

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