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जटायु जहां गिरे वहां मनुष्यों का वास था जबकि संपाति निर्जन विंध्याचल पर्वत पर गिरे. पंखविहीन संपाति अपने प्राण देने ही वाले थे कि निशाकर ऋषि से भेंट हो गई.

ऋषि ने बताया कि तुम्हारे पंख जलाने के पीछे एक बड़ा उद्देश्य छिपा है. जब श्रीराम के वानरदूत सीताजी का पता लगाते आएंगे, तब तुम उनका मार्गदर्शन करना. तुम्हारे पंख फिर से निकल आएँगे.

संपाति ने रावण का महल देखा था. उन्हें लंका की सही दिशा पता थी. उन्होंने समुद्र से लंका का रास्ता, रावण के महल की दिशा, पहुंचने का मार्ग आदि सारी सूचनाएं दीं.

प्रभुकृपा से उनके पंख निकलने लगे. संपाति के पंख निकलते देख वानर सेना को विश्वास हुआ कि यह रावण का दूत नहीं है, बल्कि रामभक्त ही हैं.

हनुमानजी ने जामवंत द्वारा उनकी शक्ति का भान दिलाने पर संपाति से मिले दिशाज्ञान को लक्ष्य करके छलांग लगाई और समुद्र लांघकर लंका पहुंचे.

समुद्र लांघने की राह में हनुमानजी के साथ बड़ी-बड़ी घटनाएं हुईं. देवताओं ने हनुमानजी की परीक्षा ली जिसमें वह सफल रहे. यह कथा अगले भाग में सुनाएंगे.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

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