गुप्त खजानों की कहानियां सुनी होंगी। कहते हैं ऐसे खजानों की रक्षा भूत-प्रेत करते हैं। ये भूत-प्रेत आखिर खजाने की रखवाली करते क्यों हैं? इन्हें तैनात कौन करता है? जीवाधारी के लोक की रोमांचक कथा…

खजानों के गुप्त रक्षकों की कथाएं हमने अनगिनत बार सुनी होगी। जहां भी कोई खजाना रखा जाता है उसकी रक्षा के लिए भूत-प्रेत तैनात रहते हैं। या फिर ऐसे रक्षक जो शक्तियों और सामर्थ्य में इंसान से बहुत ज्यादा ताकतवर हो जाते हैं। इन्हें जीवाधारी कहा जाता है। ये खजाने के स्वामी के बड़े विश्वस्त होते हैं। जान दे देंगे लेकिन किसी को खजाना छूने नहीं देंगे।

हालांकि वह खजाना न तो उनका होता है और न ही उस खजाने से एक पैसा खर्च करने का उन्हें अधिकार। फिर भी गुप्त रूप से तैनात खजाने के ये रक्षक जीवाधारी उसके लिए जान तक क्यों दे देते हैं?

हिंदी फिल्मों से लेकर हॉलीवुड की फिल्मों तक में इनकी कथाएं मिल जाएंगी। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी खजाने की रक्षा के लिए प्रेत बांधने की प्रक्रिया पर एक मार्मिक कहानी लिखी है। इससे पता चलता है कि इस तरह के तांत्रिक बंध लगाने की परंपरा बेहद पुरानी है। हम आज कथा लेकर आए हैं खजाने के गुप्त रक्षक जीवाधारी की।

इस कथा को देने का उद्देश्य है आपको सनातन से कहीं न कहीं संबंध रखने वाले रहस्यों से भी परिचित कराने का। अब इन रहस्यों के बारे में बताने वालों की संख्या कम होती जा रही है। आप इस पर यकीन करें या न करें- पर इसके बारे में जानकारी तो होनी ही चाहिए। कैसे होती थी पुराने समय की रहस्य-रोमांच की दुनिया।

यह उत्तर प्रदेश की एक सत्यकथा है, बस पात्रों और स्थान के नाम बदल दिए गए हैं। यह सत्यकथा उसी व्यक्ति की जुबानी सुनिए। खजाने के रक्षक की कथा का साक्षी ही इसे अच्छे से सुना सकता है।
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खज़ानों के रक्षक

यह घटना उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले की है। मेरी नानी जी की उम्र 15-16 साल की रही होगी। तब वह सुल्तानपुर के गाँव में रहती थीं। उस समय में अक्सर बंजारे और नट अपनी टोलियाँ बनाकर घूमा करते थे। ये नट और बंजारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते थे। जहाँ ज्यादा आबादी देखते थे वहां पर अपना मेला लगाकर करतब दिखाते और पैसे कमाते थे।

ये बंजारे हमेशा अच्छे नहीं होते थे। अक्सर बंजारों और नटों की टोली के रूप में डाकुओं की भी टोली घूमा करती थी। जो दिन में तो मेला लगाते थे मगर रात में लूटपाट किया करते थे। इसलिए अक्सर गाँव के जानकार लोग अपने गाँव के आसपास इस तरह का नटों का मेला नहीं लगने देते थे।

एक बार एक ऐसा ही मेला नानी के गाँव से थोड़ी दूर पर लगा हुआ था। गाँव के बच्चे अक्सर वहां जाने की जिद किया करते थे मगर कोई उन्हें वहां जाने नहीं देता था। इतना ही नहीं गाँव वालो ने बच्चो का खेतों में जाना और दोपहर को बाहर खेलने से भी मना कर दिया था। बच्चों को ये बात बहुत ख़राब लगती थी।

मगर बड़ों के आगे बच्चों की कहाँ चलती। इसलिए बच्चे न चाहते हुए भी सिर्फ तभी तक घर के बाहर खेलते थे जब तक कोई न कोई बड़ा उनके साथ रहता था। नानी ये सब रोज़ देखती थी ऐसा सिलसिला करीब एक महीने तक चला जब तक वहां वो नटों का मेला लगा हुआ था। नानी को ये बात खटकती कि नटों का टोला हो या डाकुओं का, आखिर बच्चों पर ये बंदिश क्यों? खैर इस बात का जवाब बच्चों को सिर्फ यही मिलता था के ये नट उन्हें पकड़ ले जायेंगे।

करीब एक महीने तक बच्चों पर बंदिश और बड़ों पर डर का साया रहा। इन सब बंदिशों के बावजूद एक दिन सुबह दस बजे के करीब गाँव में काफी शोरशराबा मचा और पता लगा के एक पड़ोस का करीब दस साल का एक लड़का घर से बाहर आया था और गायब हो गया। पूरे गाँव में उसे ढूँढा गया मगर कहीं उसका पता नहीं चला। आखिर कार गाँव के हर घर से मर्द जोर शोर से उस लड़के की तलाश में लग गए।

क्या मिल पाया वो लड़का आगे पढ़िए…..?

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