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उद्दालक ऋषि का पुत्र श्वेतकुतु था तो बहुत होशियार लेकिन उसका पढ़ने में ज्यादा मन नहीं लगता था. 12 साल की उम्र तक खेलकूद में ही लगा रहा. लेकिन पिता के समझाने के बाद उसने 12वें साल से पढ़ाई शुरू की और अगले 12 वर्षों में वेद-शास्त्रों का जमकर अध्ययन किया.
जब वह घर लौटा तो उसे अपनी बुद्धिमानी पर झूठा घमंड हो चुका था. उसे ऐसा लगने लगा कि वह संपूर्ण वेद-शास्त्रों का ज्ञाता है और वह अपने पिता से भी ज्यादा ज्ञानी बन चुका है. इसी अभिमान के कारण घर लौटने पर उसने अपने पिता को प्रणाम तक नहीं किया.
विद्या से विनम्रता आती है लेकिन अगर विद्या हासिल करने के बाद विनम्रता समाप्त हो जाए तो सारा ज्ञान बेकार चला जाता है. महर्षि उद्दालक समझ गए कि उनके बेटे को अपने ज्ञान पर घमंड हो चुका है इसलिए उसने प्रणाम नहीं किया. उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने बेटे को सही राह दिखाएंगे.
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ALL THE STORTY IS LEARN TO LIFE.
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