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कबीरदास जी जुलाहा परिवार में जन्मे थे. कपड़ा बुनना उनका खानदानी काम था. जीवन तो उसी से चलता था. कपड़ा बुनते हुए भी वह भगवान का ध्यान करते, भजन आदि गाते.
कबीरदासजी को ईश्वर की कृपा से कुछ सिद्धियां भी प्राप्त हो गईं तो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार और राजे-जमींदार उनके भक्त हो गए.
पर कबीरदासजी तो अपना जीवन कपड़ा बुनकर ही चलाते.
एक जमींदार शिष्य को खटकता कि सिद्ध संत होकर भी छोटा कार्य करते हैं. गुरुदेव पहले आप साधारण मानव थे तो कपड़ा बुनते थे. अब ईश्वर की आप पर कृपा है. पेट पालने के लिए यह छोटा काम करने की क्या आवश्यकता?
कबीरदासजी ने जान गए कि इसमें अभी भक्ति नहीं आई है. इसकी आंख खोलनी होगी. उन्होंने उत्तर दिया- पहले मैं कपड़े अपना पेट पालने के लिए बुनता था. भक्ति समाई तो ईश्वर ने समझाया कि कपड़ा बुनना सिर्फ पेट पालने का काम नहीं है.
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