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दिवोदास के राज्य में सर्वत्र धर्म का वास था. प्रजा धर्पपरायण थी. अधर्म की तो दिवोदास के राज्य में कल्पना भी कोई नहीं करता था. इस प्रकार राज करते दिवोदास को अस्सी सहस्त्र वर्ष बीत गए.

इससे कलियुग में देवताओं के गुप्त रूप से पृथ्वी पर रहने की योजना गड़बड़ा गयी. उधर शिवजी ने सोचा कि अब फिर काशी चला जाये अब तो उनके द्वारा उत्पन्न अंतिम राजा का समय भी समाप्त हो चुका है.

शिवजी ने काशी जाने से पहले कुछ दूत भेज कर काशी का हाल जानने का निश्चय किया और अपने कुछ दूत काशी भेजे. उधर काशी में दिवोदास ने अपने तपोबल से तमाम देवताओं का रूप ले रखा था.

इस तरह उसने न सिर्फ शासन व्यवस्था बहुत बेहतर कर रखी थी, लोगों को भरमा भी रखा था.

शिवदूतों के पूछने पर काशी के लोगों ने कहा- हमारे पालनकर्ता तो बस दिवोदास हैं. हम तो उन्हीं को जानते हैं.

लंबा समय बीत गया तो शिवजी को काशी की याद सताने लगी. काशी का बिछोह होने से शिवजी के साथ-साथ अन्य देवतागण भी दुखी थे. दिवोदास स्वयं उनका रूध धरकर घूमता था इससे वे लज्जित भी थे.

देवता इस अवसर की तलाश में थे कि कभी तो दिवोदास धर्मत्याग करे ताकि ब्रह्माजी के वरदान से जो स्थान छिन गया है वह पुनः प्राप्त हो पर कोई अवसर नहीं मिला.

दिवोदास के कार्य में बाधा उत्पन्न करने की भी कोशिश हुई लेकिन कोई सफल न हुआ. अततः शिवजी ने चौंसठ योगिनियों को इस कार्य में लगाने का निर्णय किया.

योगिनियों को शिवजी ने बुलाकर कहा- अस्सी सहस्त्र वर्ष से काशी से मैं दूर हूं. दिवोदास लंबे समय तक वसुंधरा का स्वामी रह चुका है पर लगता नहीं कि वह राज्य का त्याग करेगा. योगिनियों तुम जाओ और देखो यदि दिवोदास के राज्य में कहीं भी धर्म में छिद्र दिखाई पड़े तो सूचित करो.

योगिनियां बारह मास तक काशी में घूमती रहीं पर उन्हें धर्म में कहीं कोई छिद्र या कमी दिखाई न पड़ी. भोलेनाथ का कार्य नहीं कर पाने के कारण योगिनियां अंततः काशी में बस गईं.

अब काशी को कौन खाली कराए? भोलेनाथ ने सूर्यदेव का स्मरण किया. सूर्यदेव शिवजी के बुलावे पर आए.

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