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ययाति ने अब सबसे छोटे बेटे पुरू से उसका यौवन मांगा. पुरू मान गया. ययाति को बड़ी खुशी हुई. उसने पुरू को वर दिया- तुम्हारे राज्य में प्रजा की सारी मनोकामनाएं सिद्ध होंगीं. मेरे बाद तुम ही राजा बनोगे.

ययाति ने शुक्राचार्य का स्मरण किया. शुक्राचार्य ने जरावस्था पुरू को दे दी और उससे युवावस्था ले ली. ययाति को एक सहस्त्र वर्षों के लिए यौवन मिल गया था.

पुनर्यौवन पाकर ययाति फिर से भोग-विलास में डूब गया. भोग-विलास के साथ ही साथ ययाति धर्म-कर्म में भी पहले से ज्यादा सक्रिय हो गया.

वैसे तो शुक्र ने शाप से छूट दी थी कि वह देवयानी के साथ यौवन व्यतीत करे लेकिन वह स्वर्ग की अप्सरा विश्वाची के साथ प्रेम में मगन हो गया था.

सहस्त्र वर्ष बीतते-बीतते ययाति को विरक्ति हो गई. उसने पुरू को यौवन लौटाकर राजा बना दिया और स्वयं वन मे तप करने लगा. तप से उसने देवों को प्रसन्न किया और स्वर्ग में पहुंचा.

लेकिन ययाति स्वर्ग में नहीं टिक पाया. उसके संचित पुण्य समाप्त हो गए और देवताओं ने उसे स्वर्ग से निष्काषित कर दिया. निश्कासन पर ययाति के साथ क्या हुआ. वह किसके पहुंचा. यह कथा कल.

मित्रों, भागवत महापुराण में ययाति की कथा इतनी विस्तृत नहीं है. विस्तृत कथा महाभारत में मिलती है, वही मैं आपको सुना रहा हूं.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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