धुंधुली ने आत्मदेव से कहा कि वह प्रसव के कारण बहुत दुर्बल हो गई है. उसकी बहन का बच्चा मृत हुआ इसलिए वह सेवा के लिए बहन को बुला लाएं ताकि दोनों का मन लगा रहे.

मृदुली पुत्र का पालन पोषण करने के लिए आत्मदेव के साथ धुंधुली के पास आ गयी. बालक का नाम धुंधुली के नाम पर धुंधुकारी रखा गया.

उधर जिस गाय को वह दिव्य फल खिलाया गया था, उसके पेट से एक दिव्य बालक का जन्म हुआ. बालक का शरीर तो मानव का था, बस कान गाय जैसे बड़े थे.

दिव्य बालक को देखकर आत्मदेव बडे प्रभावित थे. उन्होंने स्वयं उसे पालने का निश्चय किया. गाय जैसे कान के कारण बालक का नाम गोकर्ण पड़ा.

धुंधुकारी और गोकर्ण एक ही घर में एक साथ पलकरबड़े हुए. बड़ा होने पर एक ही साथ शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरुकुल भेजे गए लेकिन वहाँ दोनो के संस्कार एक दूसरे उलट थे.

गोकर्ण वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करके परम ज्ञानी बन गया, जबकि बुरे संस्कारों वाला धुंधुकारी उद्दण्डता और तामसी प्रवृत्तियों के कारण अज्ञानी हो गया.

धुंधुकारी के भीतर बुरी से बुरी वस्तुएं एकत्र करना, चोरी करना, लोगों के बीच झगड़ा करा देना और दीन– दुखियों को कष्ट पहुँचाने जैसे दोष भरे थे.

वह खतरनाक हथियार लेकर घूमा करता और सज्जनो, मासूम पशु-पक्षियों व अन्य जीवों के लिए आततायी बन जाता. उसे पूजा-अराधना जैसे कार्य तुच्छ लगते थे.

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