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शिवमहापुराण के कोटिरुद्र संहिता में झारखंड के देवघर स्थित से श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा आई है. उसका वर्णन करता हूं.
राक्षसराज रावण बड़ा शिवभक्त था किंतु जितना बड़ा भक्त था उतना ही बड़ा हठी भी. अहंकार तो ऐसा कूट-कूटकर भरा था कि रावण के अहंकार की उपमा आज भी दी जाती है.
महादेव को प्रसन्न करके उसने एक बार घोर तप किया. कई सौ वर्षों की उसकी साधना से भी महादेव ने उसे दर्शन न दिए तो रावण अब हठ पर उतर आया.
उसने उपासना की विधि बदल दी. अपना तपोक्षेत्र बदलकर हिमालय से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में उसने को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया. गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके आहुतियां देने लगा.
पास में ही उसने संपूर्ण विधि विधान से शिवलिंग भी स्थापित किया था. कठोर नियमों का पालन करता हुआ रावण तप में लगा रहा. वह गर्मी के दिनों में पांच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि का सेवन करता था.
वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल में गले के बराबर जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था. इन तीन कठोर विधियों से रावण की तपस्या चल रही थी.
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