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अनंत चतुर्दशी पूजा की कथा एवं माहात्म्यः

हस्तिनापुर का राजा बनने के बाद महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया. यज्ञ का मंडप अद्भुत था. उसमें जल व भूमि के बीच अंतर कर पाना आसानी से संभव नहीं था. जल स्थल जैसा तथा स्थल जल की तरह प्रतीत होता था. बहुत सावधानी करने पर भी बहुत से व्यक्ति धोखा खा चुके थे.

एक बार कहीं से टहलते-टहलते दुर्योधन भी उस यज्ञ-मंडप में आ गया और एक तालाब को स्थल समझ उसमें गिर गया. द्रौपदी ने यह देखकर ‘अंधों की संतान अंधी’ कहकर उसका उपहास किया. यह बात दुर्योधन के हृदय में बाण समान लगी.

उसके मन में द्वेष हुआ और उसने पांडवों से बदला लेने की ठान ली. बौखलाए दुर्योधन को शकुनि ने सलाह दी कि तुम पांडवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लो. छल से दुर्योधन ने पांडवों को जुए में पराजित कर दिया.

पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पांडवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा. वन में रहते हुए पांडव अनेक कष्ट सहते रहे.

एक दिन भगवान कृष्ण मिलने आए, तब युधिष्ठिर ने उनसे अपना दुख दूर करने का उपाय पूछा.

श्रीकृष्ण ने कहा- ‘हे युधिष्ठिर! तुम विधिपूर्वक अनंत भगवान का व्रत करो.  अनंत चतुर्दशी को किए पूजन से तुम्हारा सारा संकट दूर हो जाएगा और तुम्हारा खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा. मैं तुम्हें अनंत चतुर्दशी व्रत के प्रभाव की एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो.

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक नेक और तपस्वी ब्राह्मण था. उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था. दीक्षा ने एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या को जन्म दिया जिसका नाम सुशीला रखा. सुशीला विवाहयोग्य हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई.

पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया. सुशीला को बहुत कष्ट होने लगे. सुमंत ने सुशीला का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया. विदाई में हर माता-पिता अपनी संतान को कुछ न कुछ उपहार अवश्य देते हैं.

सुमंत ने कुछ देना चाहा तो कर्कशा ने द्वेषवश उपहारस्वरूप कुछ देने के नाम पर अपने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े एक कपड़े में बांधकर दे दिए. कौंडिन्य ऋषि इससे दुखी होकर अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए परंतु रास्ते में ही रात हो गई.

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वे एक नदी तट पर संध्या करने लगे. वह भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि थी. सुशीला ने देखा- वहां पर बहुत-सी स्त्रियां सुंदर वस्त्र धारणकर किसी देवता की पूजा पर रही थीं. सुशीला उन स्त्रियों के पास गई और पूछा- बहन तुम यह कौन सा व्रत कर रही हो. इसमें किसकी पूजा करती हो. इसका क्या प्रभाव है, सब मुझे कहो.

उन स्त्रियों ने सुशीला को बताया कि हम अनंत भगवान की पूजा कर रहे हैं जो संकटों से उबारने वाले और सुख-समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं. उन स्त्रियों ने विधिपूर्वक सुशीला को अनंत व्रत की महत्ता बताई.

सुशीला ने उनसे पूरे व्रत का विधि-विधान समझ लिया और अनंत चतुर्दशी की उस पावन तिथि पर वहीं व्रत अनुष्ठान किया. पूजा के बाद स्त्रियों ने चौदह गांठों वाला डोरा उसकी हाथ में बांध दिया. अनंत चतुर्दशी पूजा समाप्त कर सुशीला अपने पति कौंडिन्य के पास वापस आ गई.

भगवान अनंत की पूजा के प्रभाव से सुशीला का घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया. किसी प्रकार की कोई कमी न रही. कौंडिन्य सुखी-समृद्ध और यशस्वी हो गए. इससे उनके मन में कुछ अभिमान भी आ गया.

अगले वर्ष सुशीला ने पुनः अनंत चतुर्दशी को अनंत भगवान की विधिवत पूजा की और अनंत डोरा अपनी बांह में बांधा. कौंडिन्य ने सुशीला हमेशा बंधे रहने वाले उस डोरे के बारे में पूछ लिया तो उसने सारी बात बता दी.

कौंडिन्य को लगा कि सुशीला ने उन्हें वशीभूत रखने के लिए कोई तंत्र-मंत्र करके अभिमंत्रित डोरा बांध रखा है. अपने पति के श्रम और बुद्धिमता से अर्जित धन औऱ यश का श्रेय इस सूत के धागे को दे रही है. यह बातें सोचकर वह बड़े क्रोधित हुए.

कौंडिन्य ने क्रोध में उस डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया. सुशीला झट से उठी और उसने उस डोरे को आग में से निकालकर दूघ के कटोरे में रखा. इससे भगवान अनंत का घोर अपमान हुआ. परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे.

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धीरे-धीरे उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई. यश भी मिटने लगा. उन्हें कोई किसी यज्ञ आदि में न बुलाता, कोई दान आदि प्राप्त न होता. इस तरह कौंडिन्य पर शीघ्र ही दरिद्रता छाने लगी.

वह बहुत परेशान हो गए और उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा. सुशीला ने कहा कि आपने अनंत भगवान का तिरस्कार किया यह उसी कोप के कारण हो रहा है. कौंडिन्य को अपने किए पर बड़ा पछतावा हुआ.

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए. उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे. बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य को अनंत भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने चले.प्राण देने ही वाले थे कि एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें रोक लिया.

एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया. भगवान ने मुनि से कहा- तुमने अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया यह सब उसी का फल है. प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो. व्रत का अनुष्ठान पूरा होने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे.

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कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया. भगवान ने आगे कहा- जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है. मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है. अनन्त-व्रत के विधिपूर्वक पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है.

कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया. भगवान की बताई विधि अनुसार पांडवों ने भी अनंत व्रत-अनुष्ठान किया.

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