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अतः अत्यंत विनम्र शब्दों में बोला- महाराज! मैंने जीवनभर पापकर्म किए. जिसने केवल पाप ही किया हो वह क्या आशा रखे. आप जो दंड दें, मुझे स्वीकार है.

डाकू के चुप होते ही साधु बोला- महाराज! मैंने आजीवन तपस्या और भक्ति की है. मैं कभी असत्य के मार्ग पर नहीं चला. सदैव सत्कर्म ही किए इसलिए आप कृपाकर मेरे लिए स्वर्ग के सुख-साधनों का शीघ्र प्रबंध करें.

धर्मराज ने दोनों की बात सुनी फिर डाकू से कहा- तुम्हें दंड दिया जाता है कि तुम आज से इस साधु की सेवा करो. डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार कर ली.

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