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भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों अपनी रानियों और पुत्र साम्ब को दे दिया था शाप. भगवान आदित्य की कृपा से पिता के शाप से कोढ़ी हुए साम्ब की मुक्ति की कथा. यह कथा प्रकृति के प्रकट प्रत्यक्ष देव और भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा है. इसे श्रद्धापूर्वक पढ़ें.

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रघुकुल में जन्मे राजा बृहदबल ने राजगुरु महर्षि वशिष्ठ से पूछा- “गुरुदेव! मुझे ऐसे देवता के बारे में विस्तार से बताएं जिनकी पूजा-अर्चना से मोक्ष प्राप्त करके जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा हो सके?

वशिष्ठजी राजा के इस भाव पर मुस्करा दिए, पर बोले कुछ नहीं.

बृहदबल ने पुनः प्रार्थना की- गुरूवर मैं जानना चाहता हूं, मेरी जिज्ञासाएं शांत करें. देवताओं का भी देवता कौन है? पितरों का भी पितर कौन है? मैं उसके विषय में जानना चाहता हूँ, जिसके ऊपर कोई न हो. मैं उस परब्रह्म सनातन का ज्ञान करना चाहता हूं. मुझे उस स्वर्ग की अभिलाषा नहीं है, जहां पर जाकर पुन: संसार चक्र में आकर फंसना होता है. अत: हे गुरुदेव! आप बताएँ कि यह स्थावर जंगम किससे जन्मता है और किसमें इसका विलय हो जाता है? आपकी बड़ी कृपा होगी.

वशिष्ठजी ने कहा- हे राजन! आपने एक ऐसा रहस्य जानना चाहा है जो कि स्वयं प्रकट है परन्तु खेद की बात यह है कि कोई उसे जानता या समझता नहीं. आपने जग कल्याण के हेतु यह प्रश्न किया है अत: ध्यान से सुनिए.

जो सूर्य उदय होकर संसार को अंधकार से मुक्त करता है वही पूर्णरुपेण देवताओं में आदि और अनादि है. इसके ऊपर कोई भी नहीं है. यही शाश्वत तथा अव्यय है, जगत का नाथ है और जगत का कर्मसाक्षी है.

रात में उत्पन्न होने वाले सभी स्थावर, जंगम इसी से उत्पन्न होते और समय पाकर इसी में विलीन हो जाते हैं. सूर्य ही धाता है, सूर्य ही विधाता है. यह अग्रजन्मा तथा भूतभावन हैं.

सूर्य प्रतिदिन अक्षय मण्डल में स्थित रहते हैं. यही देवताओं के देव तथा पितरों के पिता हैं. इनकी पूजा अर्चना से ऐसा मोक्ष प्राप्त होता है और संसार के पुन: आवागमन चक्र में फंसना नहीं पडता. इसी से जगत का शुभारम्भ हुआ है और इसी में विलीन हो जाएगा.

राजा बृहदबल ने कहा- गुरुवर इसका तात्पर्य यह है कि साक्षात देव सूर्य ही सर्वेश्वर हैं. इंद्रादि सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं. कोई ऐसा स्थान है जहाँ पर इनका पूजन करने से स्वयं ही पूजन स्वीकार करते हैं? जिसे इनका आद्य स्थान कहा जाए?

वशिष्ठजी ने कहा- रघुकुल नरेश! चन्द्रभागा नदी के तट पर साम्ब नामक एक नगर बसा है, जहां पर भगवान सूर्य नित्य विराजते हैं. यहीं पर विधि-विधान से की गई पूजा को भगवान सूर्य स्वयं ग्रहण करते हैं.

राजा बृहदबल ने पूछा- केवल इसी स्थान का महत्व क्यों है?

वशिष्ठजी ने बताना शुरू किया-अदिति के बारह पुत्र हुए थे जिन्हें कि द्वादश आदित्य कहा जाता है. इन द्वादश आदित्यों में से दसवें आदिविष्णु नामक अदिति के पुत्र हैं.

इन्हीं श्रीविष्णु ने वासुदेव के घर कृष्ण अवतार लिया है तथा इन्हीं कृष्ण के पुत्र साम्ब हुए हैं. एक बार श्रीकृष्ण अपने साथ ब्रह्मा के मानस पुत्र नारद जी को लेकर द्वारका में आये.

देवर्षि नारद को देखकर सभी उनका स्वागत सत्कार करने लगे पर राजकुमार साम्ब मूर्खतावश उनकी उपेक्षा और परिहास करता रहा. नारदजी को क्रोध आ गया और उन्होंने उसकी मति सुधारने का मन बना लिया.

आतिथ्य लाभ लेने के बाद विदा होते समय नारद ने श्रीकृष्ण को कहा- आपके पुत्र साम्ब का रुप और यौवन इतना मनोहर है कि संसार की कोई भी स्त्री उसे देखकर विचलित हो जाए. मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि आपकी सोलह हजार रानियां भी उस पर मोहित हैं.

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इस बात पर श्रीकृष्ण ने विश्वास न किया और बात आई गई हो गयी. कुछ समय के उपरान्त नारद पुन: द्वारका आए. इस समय श्रीकृष्ण रैवतक पर्वत पर एक उद्यान में अपनी रानियों के साथ क्रीडा कर रहे थे.

सभी ने भरपूर श्रृंगार कर रखा था और कुछ ने काम क्रीडार्थ न्यूनतम वस्त्र पहन रखे थे. राजकुल की परंपरा के अनुरूप उत्तम सुरापान भी कराया जा रहा था. नारद को लगा कि यही उचित समय है अपनी योजना पूरी करने का.

वह साम्ब के पास जाकर बोले कि रैवतक पर्वत पर स्थित तुम्हारे पिता तुम्हें बुला रहे हैं. यह बात सुनकर साम्ब तुरन्त ही वहाँ पर पहुँच गया और पिता कृष्ण को प्रणाम करके खड़ा हो गया.

साम्ब श्रीकृष्ण का छाया रूप दिखता था. कुछ रानियों ने जिन्होंने सुरापान कर लिया था वे साम्ब के प्रति कामुक हो विचलित हो उठीं. साम्ब तो उन्हें मातृवत ही देख रहा था.

तभी नारद ने वहां प्रवेश किया. उन्हें देखकर रानियां जिस स्थिति में थीं, वैसे ही आदरभाव में खडी हो गयीं. अपनी रानियों को अस्त-व्यस्त वस्त्रों में किसी परपुरुष के सामने ऐसी स्थिति में देखकर श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया.

क्रोध में उन्होनें रानियों को श्राप दिया- हे रानियों! तुम्हें इस दशा में देखकर तथा परपुरुष में आसक्त देखकर श्राप देता हूँ कि तम्हें पति सुख न मिलेगा, स्वर्ग न मिलेगा तथा डाकुओं के ही सम्पर्क में रह सकोगी. (इस शाप से केवल रुक्मिणी, सत्यभामा और जांबवती ही मुक्त रहीं.)

इसके बाद श्रीकृष्ण ने साम्ब को भी श्राप देते हुए कहा- साम्ब! तुम्हारे जिस अनन्त यौवन को देखकर ये रानियां विचलित हुई हैं, यह कोढ़ से नष्ट हो जायेगा.

इस श्राप के प्रभाव से साम्ब की देह गलने लगी तब वह पिता के पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगा. श्रीकृष्ण तो जानते थे कि यह सब क्यों हो रहा है.

वह नारद की चाल भी समझते थे किंतु नारद उनके अतिथि थे और उनका अपमान हुआ था. सो इसका दंड तो पुत्र को देना ही था अन्यथा नारद कहते कि स्वयं श्रीकृष्ण ने उनसे न्याय न किया और द्वारका में नारद का अपमान हुआ.

साम्ब पिता से बार-बार याचना करने लगा तो श्रीकृष्ण ने कहा- इसका उपाय इस संसार में नारदजी के अतिरिक्त कोई बता ही नहीं सकता. मेरे शाप से मुक्ति का मार्ग यदि किसी को पता है तो वह सिर्फ नारदजी हैं.

साम्ब नारदजी के पैरों में गिरकर क्षमा याचना करने लगा. नारदजी के मन से साम्ब के प्रति मैल धुल चुका था. श्रीकृष्ण की इस लीला से वह विभोर हो गए.

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देवर्षि नारद ने साम्ब को कहा- इस कोढ़ से मुक्ति का एक ही मार्ग है, तुम सूर्यनारायण की कठोर उपासना करके उन्हें प्रसन्न करो. वह समस्त आरोग्य प्रदाता हैं. कोढ़ से मुक्ति दिलाएंगे.

इतनी कथा सुनाने के बाद वशिष्ठजी कुछ पल के लिए रूके तो राजा बृहदबल ने कौतूहल में भरकर पूछा- गुरूवर! आगे क्या हुआ. श्रीकृष्ण के शाप से रानियों के साथ क्या हुआ, सब जानने को उत्सुक हूं.

वशिष्ठजी बोले- हे राजन! श्रीकृष्ण पृथ्वी लोक पर जिस कार्य के लिए आए थे वह प्रयोजन पूरा हो चुका था. उन्हें अपने लोक को जाना था परंतु पृथ्वीलोक के ऐश्वर्य के मोह में उनकी रानियां फंस गईं. वे मोह-माया से मुक्ति ही नहीं पा ही थीं. इसलिए श्रीकृष्ण की माया से ही यह सब हुआ.

श्राप प्राप्त होने पर रानियों को स्वर्ग न मिल सका और वे भटकने लगीं. जब भगवान अपने लोक चले गए और यदुकुल का नाश हो गया तो अर्जुन इन रानियों को लेकर अपने राज्य की ओर चले ताकि इनकी देखभाल आदि हो सके.

पंचनद प्रदेश में अर्जुन को डाकुओं ने घेर लिया. श्रीकृष्ण के पृथ्वी त्याग के उपरांत अर्जुन का भी प्रभाव समाप्त हो गया था. उस पर से स्वयं श्रीकृष्ण का शाप भी था. इसलिए अर्जुन डाकुओं से भगवान की रानियों की रक्षा न कर सके. डाकू रानियों को छीनकर ले गए.

नारद से उपाय जानकर कृष्णपुत्र साम्ब ने मैत्रेयवन में रहकर बारह वर्षों तक सूर्योपासना की जिससे उन्हें श्राप से मुक्ति मिली. व्याधि से मुक्ति मिलने के बाद साम्ब ने अनेक स्थानों पर भगवान सूर्य के मंदिर की स्थापना की.

जहां साम्ब को श्राप से मुक्ति मिली थी, वहीं साम्ब नगर है और वहीं पर साम्ब ने एक सूर्य मन्दिर बनवाया.

राजा बृहदबल आपको प्रत्यक्ष देव सूर्यनारायण की नियमपूर्वक आराधना करनी चाहिए. उनकी कृपा से आप इस लोक में सर्वस्व प्राप्त करने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो सकते हैं.

वृहदबल ने गुरु द्वारा बताई विधियों से भगवान सूर्य की उपासना की और परम मोक्ष को प्राप्त हुए. कहते हैं साम्ब की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य ने साम्ब को दर्शन दिए. साम्ब गदगद होकर भगवान सूर्यनारायण की स्तुति करते रहे. साम्ब भाव में भरकर सूर्यनारायण की स्तुति करते गए. सूर्यनारायण भी भक्त को निराश नहीं करना चाहते थे. साम्ब को पता ही नहीं चला कि स्तुति के क्रम में कब चार दिन बीत गए. इसलिए छठपूजा का उत्सव चार दिनों का मनाया जाता है. (सौर पुराण की कथा)

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यह कथा सौर पुराण की है जिसमें भगवान सूर्य को इष्ट मानकर उनके प्रभाव और माहात्म्य का वर्णन आया है. परमात्मा में कोई भेद नहीं है. हम मानव अपनी अल्प दृष्टि के कारण श्रेष्ठता और हीनता का प्रपंच रचते हैं. परमात्मा के मध्य ऐसा नहीं है. यह बात मैं पुराणों में आई कथाओं के माध्यम से ही कई बार बताता रहा हूं. पंचदेव उपासना में श्रीगणेश, जगदंबा, शिव, हरि और सूर्योंपासना का विधान वैदिककाल से है.  भगवान सूर्य ने इंद्र के भाई के रूप में अपने अंश से अदिति के गर्भ से जन्म लिया इसीलिए वह आदित्य भी कहे जाते हैं. बारह आदित्य में एक आदित्य वह भी है.

उसी तरह श्रीहरि ने भी अदिति के गर्भ से अपने अंश से जन्म लिया वह भी उपेंद्र कहलाते हैं. कई स्थानों पर आता है कि आदित्य ही उपेंद्र हैं. इन भेद में पड़ने का कोई लाभ नहीं. हरि शिव को पूजते और शिव हरि को भजते हैं. सारे पुराण यही कहते हैं. भेद दृष्टि देवताओं में नहीं है. मानव ही कोई स्वयं को श्रेष्ठ कुल और दूसरे को हीन कुल का मानता है. यह अनुचित है और सारी कथाएं यही बताती हैं.

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