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आज सीता नवमी है. बैसाख मास की शुक्लपक्ष की नवमी को माता सीता के प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है.
मां सीता संघर्षों के बीच धैर्य और धर्म की सबसे बड़ी प्रतीक स्वरूपा हैं. माता सीता का जीवन और त्याग सबके लिए प्रेरणास्पद है.
मां सीता के प्राकट्य के विषय में कई कथाएं सुनने को मिल जाती हैं. इन कथाओं से एक भ्रम भी बनता है. माता सीता तो साक्षात लक्ष्मी का अवतार थीं. उनके अवतरण का उद्देश्य था प्रभु श्रीराम के कार्य को पूर्ण कराना और उसमें माध्यम बनना.
किसी भी देवी-देवता के अवतार की कोई कथा सुनें और एक कथा का दूसरी कथा से सामंजस्य बहुत न मिले तो उसपर विवाद नहीं करना चाहिए.
ईश्वर का प्राकट्य कैसे हुआ इसके बारे में ठीक-ठीक दावा कोई कर ही नहीं सकता. ज्यादातर प्राकट्य कथाएं स्वप्न आधारित हैं, अर्थात भगवान ने स्वप्न में प्रेरणा दी है.
स्वप्न का आरंभ किसी को भी याद नहीं होता. उस आरंभ की कड़ी जो छूट गई होती है उसे फिर से बुनने में इंसान अपना विवेक लगाता है.
बस उसी कड़ी के रहस्य को खोजने और जोड़ने के प्रयास में कथाओं में कुछ अंतर आ जाता है पर महापुरुषों को प्रेरणा और ईश्वर आदेश कुछ न कुछ हुआ होता है. इसलिए कथाओं में विसंगति मिल भी जाए तो उपहास नहीं करना चाहिए.
आप इसे आनंद के लिए पढ़ सकते हैं. विसंगतियों के बाद भी हर कथा में एक अलग संदेश होता है. मैं आपको आज सीताजी के प्राक्टय की ऐसी कथा सुनाने जा रहा हूं जिसे सुनकर आप कह सकते हैं- क्या बकवास है! आपकी जैसी श्रद्धा.
चलिए आप इसे इस भाव से ही पढ़ लें फिर भी इस कथा में एक जीवन का संदेश है जिसके लिए आप कहेंगे- हां ये बात तो ठीक है. आनंद रामायण की एक कथा का आनंद लिया जाए. कुंभ क्षेत्र में जहां से यह पोस्ट बना रहा हूं, लाउडस्पीकर पर किसी संत के मुख से निकले रामकथा के स्वर भी कानों में रस घोल रहे हैं.
तीनों लोक कब्जाने की चाहत में रावण ने कठिन तपस्या की. तपस्या सफल रही. महाबली रावण के तप से जो तेज उपजा उससे सारा संसार जलने लगा.
सभी देवता घबराये हुये ब्रह्माजी के पास पहुंचे. देवताओं ने मिलकर ब्रह्मा जी से कहा कि इस स्थिति से जल्द निबटना होगा वरना हम सब भस्म हो जायेंगे.
ब्रह्माजी, तुरंत रावण के पास पहुंचे और पूछा कि इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रहे हो? तपस्या छोड़ो अब वर मांगो.
रावण ने ब्रह्माजी से कहा- मैं किसी से कभी न मरूं, मुझे अमर होने का वरदान दीजिए. ब्रह्माजी ने कहा यह असंभव है. जो पैदा हुआ है मरेगा. कुछ और मांगो.
ब्रह्माजी को वर देने में असहाय देख रावण ने कहा- यह वर नहीं दे सकते तो ऐसा वर दीजिए कि मुझे सुर, असुर, पिशाच, नाग, किन्नर या अप्सरा कोई भी न मार सके पर जब मैं अंजाने में अपनी कन्या को ही अपनी रानी बनाने का हठ कर लूं तब मेरी मृत्यु हो.
ब्रह्माजी ने कहा- तुम मानव को भूल रहे हो दसानन?
गर्व में चूर रावण बोला- मानव मुझे क्या मार सकेगा, वह तो असुरों का आहार है. ब्रह्माजी ने रावण को अभीष्ट वरदान दे दिया और चले गए.
वरदान पाकर मदमाता रावण तप खत्मकर विजय अभियान पर निकला. उन दिनों दंडकारण्य में बहुत से ऋषि-मुनि रहते थे. वे सभी देवताओं के निमित्त यज्ञ में आहुति दे रहे थे. रावण सेना के साथ वहां से गुजरा.
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यह वैदिक कथा हैं