एक राजा के राज्य में एक अध्यायी ब्राह्मण था. स्व-घोषित महापंडित. एक दिन वह राज-दरबार में जा पहुंचा. राजा ने उसका उचित सत्कार किया फिर आने का प्रयोजन पूछा.

ब्राहमण ने कहा- महाराज, मैने समस्त धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन कर लिया है. आपको ज्ञान की अवश्यकता होगी. इसलिए मैं अब आपको भागवत की शिक्षा देना चाहता हूं. मुझसे योग्य व्यक्ति इसके लिए नहीं मिलेगा.

ब्राहमण की बात सुनकर राजा मुस्कराया. वह समझ गया कि इसने शास्त्र सिर्फ पढा है, समझा नहीं. ज्ञानी आत्मचिन्तन करते हैं, अपनी विद्वता का स्वयं बखान नहीं करते.

राजा ने ब्राहमण से कहा- आचार्य, अभी आपकी शिक्षा पूरी नहीं हुई. मेरे विचार से अभी आपको और भी गहन अध्ययन-मनन की आवश्यकता है. आप परिपक्व होकर मैं शिक्षा ग्रहण करूंगा.

राजा की बात ब्राहमण को अपमानजनक लगी. उसने सोचा कि यह राजा तो निपट मूर्ख है, पूर्ण रूप से अज्ञानी. भला, जिसने भागवत का एक-एक शब्द रटा हो, उसे और अधिक अध्ययन की क्या आवश्कता!

पर चूंकि उसे राजा के यहां नौकरी चाहिए थी. इसलिए उसने राजा की बात का विरोध करना उचित नहीं समझा. अतः वह चुपचाप अपनी कुटिया पर लौट आया. वह और मनोयोग से भागवत का अध्ययन करने लगा.

कुछ दिन बाद वह फिर राजदरबार में उपस्थित हुआ. राजा ने उसे फिर उसे कहा कि अभी कुछ और अध्ययन कर लो. इस बार ब्राहमण को राजा पर क्रोध आ गया. वह कुछ कहना चाहता था लेकिन राजा के दंड की आशंका से चुपचाप लौट आया.

घर जाकर वह राजा की बात पर गंभीरता से सोचने लगा. उसके मन में सवाल कुलबुला रहा था कि आखिर क्या बात है जो राजा बार-बार बडे़ विश्वास के साथ कह देता है कि अभी और अध्ययन करो.

जब उसे कुछ समझ में नहीं आया तो वह पहले से भी अधिक मनोयोग से अध्ययन करने लगा. धीरे-धीरे उसे गूढ अर्थ समझ में आने लगा. शास्त्रों का मर्म समझने लगा. अब उसके मन से धन और यशप्राप्ति की इच्छा ही मिट गई.

उसका अहं भाव घटने लगा. अब अपनी सुविधाओं के लिए वह राजा के आश्रय में जाने की बात ही भूल गया. जब बहुत दिनों तक ब्राहमण राजा से मिलने न आया तो राजा उसे खोजने निकला. बहुत खोजने के बाद वह ब्राहमण मिल ही गया.

ब्राहमण तो अब धन और यश के मोह से मुक्त था. राजा भी ज्ञानी था. उसने भी भांप लिया. राजा ने प्रणाम करते हुए कहा- आचार्य, मै आपका शिष्य बनने आया हूं. अब आप धर्मग्रंथों के पारंगत विद्वान बन चुके है.

ब्राहमण ने उत्तर दिया- राजन आपको ज्ञान के लिए किसी के पास जाने की आवश्यकता नहीं है. सच्चा ज्ञान तो अपने मुझे दिया है. स्वाध्याय का पाठ मैंने आपसे सीखा है. आप मेरे गुरू हैं.

ज्ञान शास्त्रों के रटने से नहीं आता. उनका मर्म समझने से आता है. धर्मशास्त्रों की रचना कपोल-कल्पना से नहीं हुई है. सतत साधना से हुई है. साधना से उपजी बात को समझने के लिए तो साधक बनना पड़ेगा.

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