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ऋषियों ने सूतजी से हमने आप से भगवान सत्यनारायण की कथा का महात्मय और राजा चंद्रचूड़ की कथा बताने की प्रार्थना की. ऋषियों के विनम्र अनुरोध पर सूत जी ने चंद्रचूड़ की कथा सुनानी आरंभ की.
केदारखंड के मणिपुरक नगर में चन्द्रचूड नामक एक धार्मिक तथा प्रजा का बहुत ध्यान रखने वाले राजा रहते थे. वे अत्यंत शांत-स्वभाव, मृदुभाषी, धीर-प्रकृति तथा भगवान नारायण के परम भक्त थे.
उसी समय विंध्य देश में कुछ ऐसे लोग भी उत्पन्न हुए जो सनातन धर्म के विरोधी थे. विधर्मी बहुत उपद्रव मचाते थे. इस कारण राजा के साथ उनकी घोर शत्रुता हो गई.
राजा चंद्रचूड़ का उन विधर्मियों से भयंकर युद्ध हुआ. युद्ध में चन्द्रचूड की विशाल चतुरंगिनी सेना नष्ट हुई. कूट-युद्ध में निपुण तथा छल-कपट से चालें चलने वाले धर्म विरोधियों की सेना की क्षति बहुत ही कम हुई.
युद्ध में म्लेच्छों से परास्त होकर राजा चन्द्रचूड अपना देश और घर परिवार छोडकर अकेले ही वन में चले गये. इधर-उधर घूमते हुए वह काशीपुरी में पहुंचे. राजा ने देखा कि काशी तो द्वारका के समान ही भव्य एवं समृद्धिशाली है.
उन्होंने यहां अलग ही चलन देखा. उन्होंने देखा कि घर-घर किसी देव की पूजा बड़े ही सजधज और तैयारियों के साथ होती है. चंड्रचूड़ वहां की समृद्धि देखकर विस्मित हुए.
उन्हें विचार आया कि यदि इस समृद्धि का मूलमंत्र मिल जाए तो वह भी अपनी नगरी को ऐसा समृद्ध बनाने का प्रयास करेंगे. परंतु वह यह सोच कर निराश हो गए कि अभी तो उनके पास अपना राज्य भी नहीं है.
चंद्रचूड़ ने वरिष्ठ नागरिकों और विद्वान ब्राह्मणों से नगर की समृद्धि का मूलमंत्र पूछा तो सब ने कहा कि सत्यनारायण भगवान की ही यह कृपा है. यह सारा वैभव उनके व्रत और पूजन से ही है.
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