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एक रोज एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भ्रमण पर निकले। गुरुजी को ज्यादा इधर-उधर की बातें करना पसंद नहीं था. कम बोलना और शांतिपूर्वक अपना कर्म करना ही गुरू को प्रिय था परन्तु शिष्य बहुत चपल था.
उसे हमेशा इधर-उधर की बातें ही सूझती. उसे दूसरों की बातों में बड़ा ही आनंद मिलता था. चलते हुए जब वे तालाब के पास से होकर गुजर रहे थे तो देखा कि एक मछुआरे ने नदी में जाल डाल रखा है.
शिष्य यह देख खड़ा हो गया और मछुआरे को ‘अहिंसा परमो धर्म’ का उपदेश देने लगा. मछुआरे ने उसे अनदेखा किया लेकिन शिष्य तो उसे हिंसा के मार्ग से निकाल लाने को उतारू ही था.
शिष्य और मछुआरे के बीच झगड़ा शुरू हो गया. यह देख गुरूजी शिष्य को पकड़कर ले चले और समझाया- बेटा हम जैसे साधुओं का काम सिर्फ समझाना है लेकिन ईश्वर ने हमें दंड देने के लिए धरती पर नहीं भेजा है.
शिष्य ने पूछा- हमारे राजा को तो बहुत से दण्डों के बारे में पता ही नही है और वह बहुतों से लोगों को दण्ड ही नहीं देते हैं. तो आखिर इस हिंसक प्राणी को दण्ड कौन देगा?
गुरू ने कहा- तुम निश्चिंत रहो इसे भी दण्ड देने वाली एक अलौकिक शक्ति इस दुनिया में मौजूद है जिसकी पहुंच सभी जगह है. ईश्वर की दृष्टि सब तरफ है और वह सब जगह पहुंच जाते हैं. इसलिए इस झगड़े में पड़ना गलत होगा.
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