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जय विजय ने साधकों की सूची में इस अंधे बूढे का विवरण भी लिख लिया और स्वर्ग लौटे. प्रजापति ने सभी विवरण पढे और बोले- बाकी सभी साधक तो महज आडम्बर व समय काटने में लगे हैं. बस यही एक स्वर्ग का सच्चा अधिकारी है.

ब्रह्माजी ने उसे स्वर्ग ले आने का आदेश दिया. यह सुनकर जय-विजय उलझन में पड़ गये क्योंकि उनकी नजर में दो चार साधक निस्संदेह कठोर साधना में लगे हुए थे.

उनकी उलझन पढते हुये विधाता ने समझाया- उपासना का मतलब केवल अपनी मुक्ति हेतु जप-तप नहीं है. जनमानस को उचित दिशा दिखाना भी उपासना का एक स्वरूप है दूसरों की निस्वार्थ सेवा करने वाले के दिल में ही भगवान रहते हैं.

ऐसे निःस्वार्थ सेवियों का सम्मान करना, उनके नेक कार्य में सहायता करना भी समान पुण्यदायक कार्य है.(गीता प्रेस सत्कथा अंक में प्रकाशित कथा)
संपादनः राजन प्रकाश
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