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वह बहुत परेशान हो गए और उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा. सुशीला ने कहा कि आपने अनंत भगवान का तिरस्कार किया यह उसी कोप के कारण हो रहा है. कौंडिन्य को अपने किए पर बड़ा पछतावा हुआ.
पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनन्त भगवान से क्षमा मांगने हेतु वन में चले गए. उन्हें रास्ते में जो मिलता वे उससे अनन्तदेव का पता पूछते जाते थे. बहुत खोजने पर भी कौण्डिन्य को अनंत भगवान का साक्षात्कार नहीं हुआ, तब वे निराश होकर प्राण त्यागने चले.प्राण देने ही वाले थे कि एक वृद्ध ब्राह्मण ने आकर उन्हें रोक लिया.
एक गुफा में ले जाकर चतुर्भुज अनन्त देव का दर्शन कराया. भगवान ने मुनि से कहा- तुमने अनन्त सूत्र का तिरस्कार किया यह सब उसी का फल है. प्रायश्चित हेतु तुम चौदह वर्ष तक निरंतर अनन्त-व्रत का पालन करो. व्रत का अनुष्ठान पूरा होने पर तुम्हारी नष्ट हुई सम्पत्ति तुम्हें पुन:प्राप्त हो जाएगी और तुम पूर्ववत् सुखी-समृद्ध हो जाओगे.
कौण्डिन्य मुनि ने इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लिया. भगवान ने आगे कहा- जीव अपने पूर्ववत् दुष्कर्मो का फल ही दुर्गति के रूप में भोगता है. मनुष्य जन्म-जन्मांतर के पातकों के कारण अनेक कष्ट पाता है. अनन्त-व्रत के विधिपूर्वक पालन से पाप नष्ट होते हैं तथा सुख-शांति प्राप्त होती है.
कौण्डिन्य मुनि ने चौदह वर्ष तक अनन्त-व्रत का नियमपूर्वक पालन करके खोई हुई समृद्धि को पुन:प्राप्त कर लिया. भगवान की बताई विधि अनुसार पांडवों ने भी अनंत व्रत-अनुष्ठान किया.
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