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उन स्त्रियों ने सुशीला को बताया कि हम अनंत भगवान की पूजा कर रहे हैं जो संकटों से उबारने वाले और सुख-समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं. उन स्त्रियों ने विधिपूर्वक सुशीला को अनंत व्रत की महत्ता बताई.

सुशीला ने उनसे पूरे व्रत का विधि-विधान समझ लिया और उसी दिन वहीं पर उस व्रत का अनुष्ठान किया. पूजा के बाद स्त्रियों ने चौदह गांठों वाला डोरा उसकी हाथ में बांध दिया. पूजा समाप्त कर सुशीला अपने पति कौंडिन्य के पास वापस आ गई.

भगवान अनंत की पूजा के प्रभाव से सुशीला का घर धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया. किसी प्रकार की कोई कमी न रही. कौंडिन्य सुखी-समृद्ध और यशस्वी हो गए. इससे उनके मन में कुछ अभिमान भी आ गया.

अगले वर्ष सुशीला ने पुनः अनंत चतुर्दशी को अनंत भगवान की विधिवत पूजा की और अनंत डोरा अपनी बांह में बांधा. कौंडिन्य ने सुशीला हमेशा बंधे रहने वाले उस डोरे के बारे में पूछ लिया तो उसने सारी बात बता दी.

कौंडिन्य को लगा कि सुशीला ने उन्हें वशीभूत रखने के लिए कोई तंत्र-मंत्र करके अभिमंत्रित डोरा बांध रखा है. अपने पति के श्रम और बुद्धिमता से अर्जित धन औऱ यश का श्रेय इस सूत के धागे को दे रही है. यह बातें सोचकर वह बड़े क्रोधित हुए.

कौंडिन्य ने क्रोध में उस डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया. सुशीला झट से उठी और उसने उस डोरे को आग में से निकालकर दूघ के कटोरे में रखा. इससे भगवान अनंत का घोर अपमान हुआ. परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे.

धीरे-धीरे उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई. यश भी मिटने लगा. उन्हें कोई किसी यज्ञ आदि में न बुलाता, कोई दान आदि प्राप्त न होता. इस तरह कौंडिन्य पर शीघ्र ही दरिद्रता छाने लगी.

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