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महर्षि वाल्मीकि बोले, हे रामभक्त श्रीहनुमान, आप धन्य हैं! आप जैसे ज्ञानी और दयावान की महिमा का गुणगान करने के लिए मुझे एक जन्म और लेना होगा. मैं वचन देता हूं कि कलियुग में मैं एक और रामायण लिखने के लिए जन्म लूंगा,
सैकड़ों बरस बाद महाकवि कालिदास के समय में एक बड़ा सा ऐसा पत्थर समुद्र के किनारे पाया गया जिस पर कुछ लिखा जान पड़ता था. इस पत्थर को एक सार्वजनिक जगह पर टांग दिया गया. घोषणा करा दी गयी कि जो भी विद्वान या विद्यार्थी उसे पढ कर उसका अर्थ निकल सकेगा उसे ईनाम दिया जाएगा.

तमाम विद्यार्थी और तरह तरह के विद्वान उस पत्थर पर लिखे को न पढ पाये. आखिरकार महाकवि कालिदास ने उस गूढ़लिपि को पढ़कर उसका अर्थ निकाल लिया और बताया कि यह पत्थर का टुकड़ा हनुमानजी द्वारा लिखे हनुमद रामायण का ही एक हिस्सा है जो कि बड़ी सी चट्टान से टूट कर पानी के बहाव में यहं तक आ गया है.

धर्मधुरंधर मानते हैं कि रामचरितमानस लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास दूसरा जन्म लिये हुए महर्षि वाल्मीकि थे. तभी तो उन्होंने अपनी ‘रामचरित मानस’ लिखने के पहले हनुमान चालीसा लिखा और श्रीरामचंद्र से भी पहले हनुमानजी का गुणगान किया. यह भी बताया कि वे हनुमानजी की प्रेरणा से ही रामचरित मानस लिख रहे हैं.

आज वाल्मीकि रामायण, श्रीराम चरित मानस, तो क्या अद्भुत और आनंद रामायण जैसी तकरीबन तीनसौ राम कथायें हमारे पास हैं जबकि सबसे विश्वसनीय रामायण आज हमारे बीच नहीं. कहा जाता है कि वह महासमुद्र की अतल गहराइयों में है.

बोलो सियापति रामचन्द्र की जय , पवनसुत हनुमान की जय.

स्रोत : लोकगाथा

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