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दैत्यराज का तप भंग हो चुका था. वह निराश था और उसने महल लौटने का निश्चय किया. वह समझ चुका था कि किसी ने छल से उसका व्रत भंग करवा दिया है.
उसकी अब तक की सारी मेहनत पर पानी फिर गया है. वह तत्काल अपने नगर को चल दिया. दैत्यराज हिरण्यकश्यपु अपने नगर पहुंचा.
उसकी पत्नी कयाधु ऋतुमति थी. लंबे अंतराल बाद हिरण्यकश्यप और कयाधु का मिलन हुआ था. मिलन के क्षणों में कयाधु ने पति हिरण्यकश्यप से एक प्रश्न पूछ लिया.
कयाधु ने पूछा- आपने जाते समय कहा था कि आपका तप दस हजार वर्ष तक चलेगा. पर आपने बीच में ही तपस्या का त्याग कर दिया. व्रत के त्यागने का कारण मैं आपसे प्रेमपूर्वक पूछ रही हूं. कृपया सच-सच बतलायें.
हिरण्यकश्यपु ने संगम में रत रहते हुए अनमने मन से कयाधु को उत्तर दिया- प्रिये मेरा तप अपने पूर्णता की ओर अग्रसर था लेकिन उन पक्षियों ने मेरा ध्यान बंटाने के लिए “ऊं नमो नारायणाय”, “ऊं नमो नारायणाय” का उच्चारण शुरू कर दिया.
दोनों पक्षी बार-बार नारायण मंत्र का जप करते थे. नारायण नाम के बार-बार श्रवण से मेरे तप में विघ्न पड़ने लगा.
मुझे नारायण से घृणा है और मेरे कानों में ऊं नमो नारायणाय की स्पष्ट ध्वनि साफ पड़ रही थी. इससे मेरा व्रत टूट गया.
मुझे आशंका हुई कि कहीं तुम्हारे साथ कुछ अशुभ न हुआ हो इसलिए मैं शीघ्र ही यहां आ गया.
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