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दोनों ने बड़े ही स्पष्ट स्वर में नारायण मंत्र का जप किया था. पर्वत के शिखर से टकराकर उनकी आवाज गूंजने लगी. बार-बार नारायण मंत्र वहां सुनाई देने लगा.

यह सुनकर हिरण्यकश्यप बेचैन हो उठा. नारायण द्रोही के कानों में नारायण मंत्र के स्वर पड़े तो उसकी एकाग्रता भंग हो गयी.

वह तो नारायण नाम के उच्चारण तक से चिढ़ता था और उच्चारण करने वाले के वध को तत्पर रहता था.

क्रोध में आग-बबूले हिरणाकश्यप ने सोचा मेरा कोई शत्रु यहां आ पहुंचा है, संभवतः स्वयं नारायण ही यहां हैं. उसने तप छोड़ दिया और शत्रु को खोजने लगा.

नारदजी और पर्वत मुनि को सफलता मिलती दिखी. दोनों ने फिर से नारायण मंत्र का उच्चारण किया.

अब तो असुरराज के क्रोध की सीमा ही न रही. उसने देखा कि सामने वृक्ष पर बैठे दो पक्षी ही नारायण मंत्र का उच्चारण कर रहे हैं. उसने धनुष पर तीर चढ़ाकर उन पर निशाना लगाया.

दोनों ही मुनि पहले से ही सचेत थे. उसे धनुष उठाता देखा तो वे उडकर कहीं और चले. बदहवास हिरण्यकश्यप उनके पीछे मारने के लिए दौड़ा. दोनों ने अपने सिद्धिबल का प्रयोग किया और वहां से लुप्त हो गए.

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