कजरी तीज को शिव-पार्वती पूजन

सतीजी द्वारा देवी सीता बनकर श्रीरामजी की परीक्षा लेने के कारण भोलेनाथ व्यथित हैं और धर्मसंकट में पड़े हैं. श्रीराम उनके आराध्य हैं. सती ने अज्ञानतावश कुछ काल के लिए आराध्य की भार्या का रूप धरा इस तरह वह उनके लिए पूजनीय हो गईं.

महादेव को उलझन है कि श्रीराम उनके आराध्य और गुरू हैं. गुरू की अर्धागिंनी तो मातृवत पूजनीय हुईं. अब वह सती के प्रति पत्नी का प्रेम कैसे रख सकते हैं. इससे भक्ति की भावना का खंडन होता है.

शास्त्र गुरूपत्नी के सिर्फ चरणों के दर्शन का आदेश करते हैं. इसलिए इस तन के साथ तो अब सती और महादेव का धर्मविरूद्ध मिलन संभव ही नहीं.

दोहाः
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥56॥

सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है. महादेवजी स्पष्ट रूप से कुछ भी नहीं कह रहे, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है.

चौपाई :
तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥

तब शिवजी ने ध्यान करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्रीरामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरा पति-पत्नी रूप में मिलन अब नहीं हो सकती. शिवजी ने मन में यह संकल्प कर लिया.

अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥2॥

स्थिर बुद्धि शंकरजी ने ऐसा विचारकर श्री रघुनाथजी का स्मरण किया फिर अपने लोक कैलास को चले. चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो. आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की.

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है. आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं. इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥

हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं. यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा.

सतीजी को कुछ अनुमान भी हो रहा है और भय भी. उन्हें भान हो रहा है कि सर्वज्ञ महेश्वर से कुछ भी छुपा लेने की बात सोचना भी अज्ञानता है. उनके हृदय में चिंता शिवजी की प्रतीज्ञा को लेकर बड़ी है. सती सोचती हैं-

दोहा :
सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥57 क॥

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए हैं. मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और नासमझ होती है.

सोरठा :
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥57 ख॥

प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी दूध के साथ मिलकर दूध के भाव में बिकता है, परन्तु यदि उसमें कपट रूपी खटाई पड़ जाए तो दूध और पानी का बिछोह हो जाता है. दूध फट जाता है और उसकी मधुरता यानी प्रेम जाती रहती है.

अज्ञानतावश ही सतीजी ने महादेव के प्रेम, विश्वास और वाणी पर शंका की. समझाने पर भी श्रीराम के परमात्मा होने पर शंका की और फिर उनकी परीक्षा लेने के लिए सीताजी का ही रूप धर लिया. महादेव के लिए अब सती त्याग योग्य हो गई हैं.

संकलनः राजन प्रकाश

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here