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बहुत से लोग ऐसे होते हैं कि उनके किए एक नेक कार्य का फल नहीं मिलता या फिर जिनके साथ नेकी की वह अहित कर दे तो प्रण कर लेते हैं कि आज के बाद नेकी के कार्य नहीं करेंगे.

संभव है भगवान आपकी इस तरह परीक्षा ले रहे हों कि बंदे ने नेकी क्या त्वरित फल की चाहत में ही की या फिर हृदय से वह ऐसा है. नेकी के लिए तो कहा ही गया है- नेकी कर दरिया में डाल.

स्मरण रखने और प्रति उपकार की आशा में किया गया नेक कार्य परोपकार नहीं व्यापार होता है. नेकी कभी व्यर्थ नहीं जाती. यह कथा आपके मन में नेकी के भाव को दृढ़ करेगी. शांत मन से पढ़ें और विचारें.

धर्मदत्त नामक एक पवित्र और सदाचारी ब्राह्मण था. वह व्रत-उपवास आदि विधिवत किया करता था. उसने निर्जला एकदशी का व्रत रखा था.

अगली सुबह वह पूजा के लिए मंदिर जा रहा था.

रामनाम रूपी यज्ञ करने वाले उस ब्राह्मण ने पुष्प, फल, अक्षत और तुलसी आदि यथोचित पूजन सामग्री एक थाली में रखी और प्रातःकाल मंदिर की ओर चला जा रहा था.

मार्ग में एक प्रेतात्मा विकराल राक्षसी का रूप धारण करके अचानक उसके सामने आयी.

उसे देखकर वह घबरा गया और हड़बड़ी में उसने पूजा की थाली जोर से उस राक्षसी पर दे मारी.

पूजा की थाली में रखे हुए तुलसीपत्र उसके शरीर को छू गए. तुलसीदल का स्पर्श होते ही उस प्रेतात्मा की पूर्वजन्म की स्मृति जाग उठी और वह कांपती हुई दूर जा खड़ी हुई.

थोड़ी सहज होने पर प्रेतात्मा स्त्री के स्वर में बोली- “हे ब्राह्मण! आपकी इस पूजा की थाली का स्पर्श होते ही मेरा कुछ उद्धार हुआ है और मुझे अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो रहा है. अब आप जैसे भगवत्प्रेमी भक्त मुझ पर कृपा करें तो मेरा उद्धार हो जाए.

अब ब्राह्मण को चैन में चैन आया कि यह उसका कोई अहित नहीं करेगी.

ब्राह्मण ने पूछा- तुम कौन हो,अपना परिचय दो? प्रेत योनि में क्यों भटक रही हो, ऐसा क्या पाप हुआ है तुमसे? बिना यह सब जाने-सुने मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊंगा. सब विस्तार से कहो.

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