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गजासुर वचनबद्ध था. वह समझ गया कि उसके पेट में बसे शिवजी का रहस्य जानने वाला यह रहस्य यह कोई साधारण ग्वाला नहीं हैं, जरूर स्वयं भगवान विष्णु आए हैं.
उसने शिवजी को मुक्त किया और शिवजी से एक आखिरी वरदान मांगा. उसने कहा- प्रभु आपको उदर में लेने के पीछे किसी का अहित करने की मंशा नहीं थी.
मैं तो बस इतना चाहता था कि आपके साथ मुझे भी स्मरण किया जाए. शरीर से आपका त्याग करने के बाद जीवन का कोई मोल नहीं रहा.
इसलिए प्रभु मुझे वरदान दीजिए कि मेरे शरीर का कोई अंश हमेशा आपके साथ पूजित हो. शिवजी ने उसे वह वरदान दे दिया.
श्रीहरि ने कहा- गजासुर तुम्हारी शिवभक्ति अद्भुत है. शिव आराधना में लगे रहो. समय आने पर तुम्हें ऐसा सम्मान मिलेगा जिसकी तुमने कल्पना भी नहीं की होगी.
जब गणेशजी का शीश धड़ से अलग हुआ तो गजासुर के शीश को ही श्रीहरि काट लाए और गणपति के धड़ से जोड़कर जीवित किया था. इस तरह वह शिवजी के प्रिय पुत्र के रूप में प्रथम आराध्य हो गया.
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