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वृकासुर की बात सुनकर शिवजी समझ गए कि असुर ने अपने जाल में फंसा लिया है. अब क्या करें? वह राक्षस न कुछ सुनेगा, न मानेगा. कहीं वह उन्हें ही न भस्म कर दे.

ऐसा सोचकर शंकरजी भागे. शिवजी को भागता देख उसका क्रोध बढ़ गया.

वह पीछा करने लगा. नारद ने भी मुझसे छल किया. अब वरदान की परीक्षा से डरकर शिवजी भाग रहे हैं, यह सोचकर वह उनके पीछे लगा रहा.

शंकरजी भूमंडल छोडकर देवलोक तक भागते रहे और वृकासुर भी आसुरी शक्ति के बल पर उनका पीछा करता रहा.

ऋषि, मुनि तथा समस्त देवगण असहाय होकर यह देखते रहे, पर करे क्या? कौन उसके सामने पड़े और भस्म हो. अंत में शिवजी विष्णुलोक पहुंचे और अपनी विपदा सुनाई.

विष्णुजी ने हंसकर कहा- मेरे भगवन भोलेनाथ आप कितने सरल हैं. असुरों को बिना विचारे वरदान दे देते हैं. आपके वरदान को सत्य भी सिद्ध करना है. यह तो अजीब उलझन है. कुछ करता हूं.

शिवजी ने कहा- मैंने बिना विचारे वरदान नहीं दिया है. मैं जानता हूं कि इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है. यह इस शक्ति को प्राप्त कर संसार में जीवों का अनिष्ट ही करता इसलिए इसकी बुद्धि हर ली.

इससे पहले कि संसार में यह किसी साधुजन का मेरे वरदान के प्रभाव से अनिष्ट करे उससे अच्छा है कि इसे ही नष्ट कर दिया जाए. संसार के समस्त प्राणियों को एक संदेश देना आवश्यक है कि किसी की सरलता को उसकी हीनता या कमजोरी नहीं समझना चाहिए.

दूसरों की सरलता का लाभ लेकर अपने स्वार्थसिद्धि के मोहजाल में फंसे कृतघ्न का ही सबसे पहले नाश होता है. कृतघ्न अपने विनाश की पृष्ठभूमि स्वयं तैयार करता है. यह संदेश देने के लिए करनी पड़ी है लीला.

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