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शिवजी बोले- वृक तुमने कठोर तप से मुझे प्रसन्न किया है. मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं. जिस पर मैं प्रसन्न होता हूं उसमें अपना पुत्ररूप देखता हूं. इसलिए पिता की भांति तुम्हारे कल्याण की चिंता करना मेरा दायित्व है.

तुम्हारी प्रसन्नता के लिए इच्छित वरदान भी दे दूंगा फिर भी मैं तुम्हें परामर्श इसलिए दे रहा हूं क्योंकि मुझे तुम्हारा तप नष्ट होता दिख रहा है.

वृकासुर तो जैसे प्रतिशोध के लिए जल रहा था. उसने शिवजी की सलाह न मानी और अपनी बात पर अड़ा रहा. शिवजी ने आखिरकार उसका इच्छित वर दे दिया.

शिवजी बोले- तुम यही चाहते हो तो यही सही. तुम जिसके सिर पर हाथ रख दोगे वह भस्म हो जाएगा.

भगवान शिव का आशीर्वाद पाते ही वृकासुर की आसुरी प्रवृत्ति तीव्र रूप से जाग्रत हो गई. उसे लगा कि इतनी आनाकानी के बाद वरदान दिया है, क्या पता सही में भी दिया है या ऐसे ही बहला रहे हैं. इसे तो जांचना चाहिए.

वृकासुर ने शिवजी से कहा- प्रभु जरा ठहरिए. आपने जो वर दिया है वह सचमुच दिया है या बस यूं ही बोल गए इसकी जांच कैसे हो. आपकी आनाकानी के बाद तो मुझे आप पर विश्वास ही नहीं है. मैं तो इसकी परीक्षा लेना चाहता हूं.

इसलिए पहले मैं आपके सिर पर ही हाथ रखकर देखूंगा हूं कि आपका दिया वरदान सच्चा है या झूठा. आप जरा इधर आइए.

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