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विष्णुदास ने ध्यान लगाया और भगवान से प्रार्थना की- हे श्रीहरि! बेचारे इस बूढ़े को स्वस्थ कर दें. इसे अन्न-जल की कोई कमी न हो, ऐसा वरदान दीजिए.
अपनी प्रार्थना खत्मकर विष्णुदास ने आंखें खोलीं तो उनके समक्ष शंख, चक्र, गदा व खड्गधारी साक्षात श्रीहरि खड़े मुस्कुरा रहे थे. विष्णुदास मुग्ध होकर प्रभु के अनंत दिव्य रूप निहारता रह गए.
उन्होंने परमात्मा की स्तुति की. भगलान प्रसन्न होकर उन्हें दिव्य विमान में चढ़ाकर अपने साथ ले चले. चोल राजा को जब यह समाचार मिला तब उनमें ज्ञानोदय हुआ.
राजा ने अपना राज्य अपने भांजे को दिया और यज्ञकुंड के सामने खड़े होकर कहा- प्रभु आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा मिलने वाली दृढ़ भक्ति दीजिएए. यह कहकर वह अग्नि कुंड में कूद पड़े.
भगवान श्रीहरि अग्निकुंड में प्रकट हुए. उन्होंने राजा चोल को भी अपने साथ विमान पर बिठाया और साथ लेकर बैकुंठ धाम के लिए प्रस्थान कर गए.
विष्णुदार पुण्यशील और चोल सुशील नामक श्रीहरि के प्रिय पार्षद हुए. भगवान दोनों को अपने जैसे रूप देकर द्वारपाल बना लिया.
भगवान भक्तों की भक्ति पर सदैव रीझते रहे हैं. चाहे निषादराज, शबरी या जंगल में विचरने वाले रीछ, वानर हों अथवा गोपियों का माखन चुराने वाले बालगोपाल ग्वाले.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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