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राजा की बात सुनकर विष्णुदास ने कहा-आप जिसे अपनी भक्ति बता रहे हैं, दरअसल वह राजलक्ष्मी के कारण आपके सिर पर चढ़े अभिमान के अलावा कुछ भी नहीं है.
राजा ने हंसकर कहा- तुम दरिद्र हो. तुम्हारी भक्ति ही कितनी है. वन के फूल पत्ते चढ़ाने को ही भक्ति नहीं कहते. भगवान दान, यज्ञ और मंधिर निर्माण से प्रसन्न होते हैं.
विष्णुदास ने कहा- भगवान ने कब कहा ऐसा? जो संपत्ति आप उन्हें अर्पित कर रहे हैं वह आपकी है कहां. वह तो प्रभु की ही है. उनके लिए राजा और रंक में कोई भेद नहीं.
अब राजा को क्रोध आया. उसने कहा- यदि तुम ऐसा मानते हो तो और तुम्हें भक्ति का गर्व है तो फिर देखते हैं. भगवान किसे पहले दर्शन देते हैं, तुम्हें या मुझे?
राजा राजमहल को लौट गए. थोड़े दिन बाद राजा ने महर्षि मौदगल्य के नेतृत्व में वैष्णव यज्ञ प्रारंभ कराया. महाराज का यश चारों तरफ फैल गया.
दरिद्र विष्णुदास अपने सामर्थ्य के मुताबिक भगवान श्रीहरि के प्रति श्रध्दा-भक्ति के साथ पूजा-अर्चना में लीन रहे. वह मंदिर में ही रहकर भगवान का स्मरण करते रहे.
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