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एक संत ब्रह्मज्ञान (ईश्वर दर्शन) का प्रचार करते थे परंतु कर्मकाण्डी लोग उनका विरोध करते थे. जैसे संत की प्रसिद्धि बढ़ती गई कर्मकाडियों का प्रतिरोध भी उतना ही बढ़ता गया.
उनके साथ कहीं भी दुर्व्यवहार हो जाना आम बात हो गई. लोगों को उनसे दूर रखने का प्रयास किया जाता. जो पास जाता उसे भी तंग किया जाता. परंतु संत इन सबसे बेफिक्र अपनी मस्ती में गाते चले जाते–
मन मंदिर में रहता है वो अंतर में ही पाओगे.
ब्रह्मज्ञान की दृष्टि लेकर, घट मे ज्योत जलाओ रे
संत की इस बात से लोगों में एक जिज्ञासा भी होती. वे उनके भजन चाव से सुनते. विरोधियों का गुस्सा एक बार आपे से बाहर हो गया. सब ने मिल कर सोचा आज संत को शांत ही कर दिया जाए.
वह गलियों में अपना भजन गाते मस्ती में घूम रहे थे तभी उन पर पत्थरों की बरसात कर दी लोगों ने. संत लहूलूहान होकर अचेत होकर जमीन में लोट गए.
तभी वहां से एक डॉक्टर निकले. उन्हें संत पर दया आई. उनकी चोट पर दवा आदि लगाई. तो कुछ देर में संत की चेतना लौटी. डॉक्टर शीघ्र आराम के लिए सुई देने की तैयारी कर रहे थे कि संत चिल्लाए- नहीं यह मत लगाना. इससे बहुत दर्द होगा.
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